SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३ आलोचना पाठ दोहा वंदो पांचों परमगुरु, चौवीसौ जिनराज; कहु शुद्ध आलोचना, शुद्ध करन के काज. ३. सखी छंद-१४ मात्रा सुनिये जिन ! अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी; तिनकी अब निवृत्ति काजा, तुम शरन लही जिनराजा. २. इक बे ते चउ इन्द्री वा, मन-रहित-सहित जे जीवा; तिनको नहि करुना धारी, निरदई व्है घात विचारी. ३. समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कोने प्रारंभ; कृत कारित मोदन करिक, क्रोधादि चतुष्टय धरिकै. ४. शत आठ जु इम भेदनतें, अघ कीने पर छेदन ; तिनकी कहुं कोलौं कहानी, तुम जानत केवल ज्ञानी. ५. विपरीत अकांत विनयके, संशय अज्ञान कुनयके; वश होय घोर अघ कीने, बचतें नहि जात कहीने. ६. कुगुरुनकी सेव जु कीनी, केवल अदयाकर भीनी; या विधि मिथ्यात भ्रमायो, चहु-गतिमधि दोष उपायो. ७. हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, परवनितासों दृग जोरी; आरंभ परिग्रह भीनो, पनपाप जु या विधि कीनो. ८. 66
SR No.032316
Book TitleBbhakti Karttavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1983
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy