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________________ नय निश्चय अकांतथी, आमां नथी कहेल; एकांते व्यवहार नहि, बन्ने साथ रहेल. गच्छमतनौ जे कल्पना, ते नहि सद्व्यवहार; भान नहि निजरूप, ते निश्चय नहि सार. आगळ ज्ञानी थई गया. वर्तमानमां होय; था काळ भविष्यमां, मार्गभेद नहि कोय. सर्व जीव छे सिद्धसम; जे समजे ते थाय; सद्गुरू आज्ञा जिनदशा; निमित्त कारण मांय. १३५ उपदाननु ं नाम लई, ओ जे तजे निमित्त; पामे नहि सिद्धत्वने, रहे भ्रांतिमां स्थित. मुखथी ज्ञान कथे अने; अंतर छूटयो न मोह; ते पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीनो द्रोह. दया, शांति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग वैराग्य; होय मुमुक्ष, घट विषे, अह सदाय सुजाग्य मोहभाव क्षय होय ज्यां, अथवा होय प्रशांत; ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी कहिये भ्रांत. सकल जगत ते अठवत, अथवा स्वप्न समान; ते कहीये ज्ञानीदशा, बाकी वाचाज्ञान. स्थानक पांच विचारीने, छट्ट े वर्ते जेह; पामे स्थानक पांच, ऐमा नहि संदेह. 37 १३२ १३३ १३४ १३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१
SR No.032316
Book TitleBbhakti Karttavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1983
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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