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________________ सकता।' चलें ! तो हम अब जैन शास्त्रों में प्रवेश करके देखें कि इस काल में इस क्षेत्र में जीव क्षायिक समकित पा सकता है या नहीं ? ' क्षायिक सम्यक्त्व किसे और किस की निश्रा में हो ?' ' दर्शन मोहनीय कर्म क्षय होने का जो क्रम है, उस क्रम का प्रारंभ केवली अथवा श्रुतकेवली की निकट निश्रा में ही हो सकता है और उसका प्रारंभ करने वाला कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ मनुष्य ही हो।' ( गोम्मटसार - जीव कांड - गाथांक 647 के तीन चरण) इस सिद्धांतानुसार इस क्षेत्र में वर्तमान क्षण में कोई केवली अथवा श्रुतकेवली नहीं है इसलिए उनकी निश्रा के अभाव से किसी को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो नहीं सकती। ऐसा प्रवाद चालू हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है, परन्तु उसी गाथा का चौथा चरण है- 'णिट्ठ वगो होदि सव्वत्थ' अर्थात् यदि कभी दर्शन मोह का सर्वथा क्षय होने से पूर्व ही अपूर्ण कार्य से उस क्षपणक का आयुष्य पूर्ण हो जाए तो अपने अपूर्ण कार्य की परिसमाप्ति चारों गतियों में से किसी भी गति में जाकर वह जीव कर सकता है । वहाँ उसे पूर्व संस्कारबल सहायक होता है। इसलिए अन्याश्रय अनिवार्य नहीं होता है। इस दिगम्बर सिद्धांत के अनुसार श्वेताम्बर कर्मसिद्धांत का भी कथन मिल जाता है। उपरांत 800 वर्ष पूर्व हो गए युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी ने श्री महानिशीथसूत्र की साक्षी देकर स्वरचित 'उपदेशकुलक' में युगप्रधानों को क्षायिक समकिती बतलाया है । आर्य सुधर्मास्वामी से लेकर 34
SR No.032315
Book TitleUpasya Pade Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2013
Total Pages64
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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