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________________ और सामने फैली गिरिकंदराएं इन पंक्तियों को जैसे दोहरा रहीं थीं - " विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम्.........विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् पश्य पश्य स्वरूपम् ......... पश्य पश्य स्वरूपम्" " स्वतत्त्व को - स्वयं के तत्त्व को पहचानो" " स्वरूप को-अपने परम आत्म-रूप को देखो !" और तभी वीतराग-वाणी, निग्रंथ प्रवचन को प्रमाणित करती श्रीमद् की वाणी गूंज उठी : " जिसने आत्मा को जाना, उसने सब को जाना ।" " जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ......... .....।" पुनः गिरि-कंदराओं में से घोष उठा : " विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम्-स्वयं के तत्त्व को पहचान! ... पश्य पश्य स्वरुपम् - अपने आत्मरूप को देख!" इस प्रतिध्वनि के साथ मेरी आत्मा मुक्त आकाश में विहार करने लगी, और मैं अनिच्छापूर्वक रत्नकूट की उस धरती पर से नीचे उतरने लगा – उस आश्रम के केंद्र और मेरे जीवन के आराध्य परमगुरु श्रीमद्जी की भव्यात्मा को नमन करते हुए:
SR No.032314
Book TitleDakshina Path Ki Sadhna Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year1985
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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