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________________ चंद्राचार्य, आचार्य हरिभद्रसूरि, देवचंद्रजी, यशोविजयजी, कृपालुदेव श्रीमद् राजचंद्रजी, कुंदकुंदाचार्यजी और विहरमान तीर्थकर भगवान सीमंधर स्वामी जैसे लोकोत्तर व्यक्तियों की चेतनाभूमि में मुनिजी के संग मैंने विहार किया ......... उन दिव्य - प्रदेशों की यात्रा ने मुझे अत्यंत समृद्ध एवं स्वत्व - सभर बना दिया। तत्पश्चात् वर्तमान जैनाचार्यों एवं अन्य महापुरुषों के साधना प्रदेश में विचरण किया। गांधीजी, श्री अरविंद, रवीन्द्रनाथ, मल्लिकजी, विनोबाजी, चिन्नम्मा इत्यादि की साधनादृष्टि की तुलना की। इससे मैंने यही सार निकाला : "आत्मदीप बन ! . . . . . अपने आपको पहचान !. . . . . तू तेरा सम्हाल !" और इसके फलस्वरूप मेरी विद्या की, ज्ञान-दर्शन-चारित्र साधना की, आत्मानुभूति की अभीप्साएँ पुन: जाग्रत हुई । वीतराग प्रणीत साधनापथ एवं श्रीमद् राजचंद्रजी का जीवनदर्शन, आज तक के मेरे अनुभव एवं आज की प्रश्नचर्चा के बाद मुझे अपना उपादेय प्रतीत होने लगा। कुछ समय पश्चात्, अपनी साधना दृष्टि का विशेष रूप से स्पष्टीकरण हेतु मैने उनसे प्रश्न किया था। उनके उत्तर से श्रीमद् की, उनकी - खुद की और आश्रम की समग्र, सारग्राही, संतुलित साधनादृष्टि प्रकट होती है। उन्होंने लिखा था : "आपके हृदयरूपी मंदिर में अगर श्रीमद् की प्रशमरस निमग्न, अमृतमयी मुद्रा प्रकट हुई हो, तो उसे वहीं स्थिर बनाइए । अपने चैतन्य का उसी स्वरूप में परिणमन ही
SR No.032314
Book TitleDakshina Path Ki Sadhna Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year1985
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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