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________________ ग्रन्थ की कथावस्तु एवं उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ३१ उसे कुएँ में डाल देता है । लोभदेव लोभ के वशीभूत होकर अपने मित्र को समुद्र में डुबा देता है और मोहदत्त कामराग से अन्धा होकर अपने पिता की हत्या कर की उपस्थिति में अपनी बहिन के साथ संसर्ग करने का प्रयत्न करता है । तात्पर्य यह कि ये पाँचों व्यक्ति इस संसार में जो पाप होते हैं या हो सकते हैं - हत्या, छल-कपट, मिथ्या घमण्ड, बेईमानी एवं व्यभिचार आदि उनका प्रतिनिधित्व करते हैं । इतना नीचे गिरते हैं जहाँ से केवल उन्हें नरक की यातनाएँ ही प्राप्त होंगी। किन्तु मानवीय जीवन के इस अन्धकारमय पहलू को उभारना ही लेखक का अभीष्ट नहीं है । अभीष्ट की प्राप्ति के लिए यह आधारशिला भी है । भारतीय संस्कृति की प्रास्तिक विचारधारा इस बात की माँग करती है कि इन पाँचों व्यक्तियों को उनके जघन्य कर्मों का पूरा फल मिलना चाहिए । अतः कर्मफल को पूर्णतया स्पष्ट करने के लिए उद्द्योतनसूरि ने इन पाँचों के अगले चार जन्मों के कथानक का निर्माण किया है । पाँचों व्यक्तियों ने जघन्य कृत्यों के बाद पश्चात्ताप ही नहीं किया, अपितु असद्वृत्तियों के परिष्कार के लिए साधु जीवन को अंगीकार कर लिया था । यही कारण है कि वे अगले जन्मों में नरक की अपेक्षा स्वर्ग में जन्म लेते हैं । यहाँ परोक्ष में उद्योतनसूरि स्वनिरीक्षण और प्रात्मालोचना के महत्व को भी प्रतिपादित कर देते हैं । वे यह भी चाहते हैं कि पाठक इन व्यक्तियों के कर्मफल को देखकर दूर से ही इन पापों से बचने का प्रयत्न करे : जं चंडसोम-ई-वृत्तंत्ता पंच ते वि क्रोधाई । संसारे दुक्ख फला तम्हा परिहरसु दूरेण ॥। २८०.२० इसके बाद ग्रन्थ के कथानक में दूसरी सांस्कृतिक विचारधारा पृष्ठभूमि के रूप में आती है । उद्योतनसूरि सामान्य लेखक नहीं थे । एक ओर जहाँ उन्होंने क्रोध आदि तीव्र कषायों की पराकाष्ठा प्रस्तुत की, दूसरी ओर इन कषायों के वशीभूत व्यक्तियों को मलिन आत्मा के परिशोधन का मार्ग भी उन्होंने प्रशस्त किया है । पाप कितना ही बड़ा क्यों न हो यदि उसका हृदय से प्रायश्चित्त कर लिया जाय तो उसके फल में न्यूनता हो सकती है, आगे का जीवन सुधर सकता है । इन सभी व्यक्तियों को आचार्य धर्मनन्दन की शरण में पहुँचाने के पीछे लेखक का यहो उद्देश्य रहा है । परोक्ष रूप में उन अन्धविश्वासों का खण्डन करना भी, जो आत्मशोधन के बजाय स्वार्थपूर्ति के साधन अधिक थे । दूसरे शब्दों में, लेखक प्रसद्वृत्तियों का दमन करने के स्थान पर उनका परिशोधन कर उन्हें सद्वृत्तियाँ बनाने में अधिक विश्वास करता है । यही बात वह अपने पाठकों से कहना चाहता है कि असद्वृत्तियाँ ही बलवती नहीं हैं, उन पर सद्वृत्तियों की भी विजय हो सकती है, जो संयम और तप के द्वारा सम्भव है । अधम से अधम पापी भी निराश होने के बजाय प्रायश्चित्त द्वारा वैराग्य की ओर अग्रसर हो सकता है: :
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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