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________________ २६ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन के साथ जैसे ही कामक्रीड़ा प्रारम्भ की, उसे एक आवाज सुनाई दो कि वह अपने पिता की हत्या कर अपनी बहिन के साथ संसर्ग करने जा रहा है। यह एक मुनि की आवाज थी, जिन्होंने बाद में मोहदत्त को पूरी घटनाओं से परिचित कराया। मोहदत्त ने अपने इस पाप का प्रायश्चित्त करना चाहा। अन्त में वह भी मुनि धर्मनन्दन के पास आया और उनसे दीक्षा ले ली। इस प्रकार धर्म नन्दन मुनि ने वासव मन्त्री और पुरन्दरदत्त राजा को क्रोध आदि इन पांचों विकारों पर संयम करने के लिए कहा। मुनि के उपदेश सुनकर राजा और मन्त्री दोनों नगर में लौट गये। रात्रि में पुरन्दरदत्त राजा का हृदय परिवर्तित हो गया। वह वेष परिवर्तन कर मुनि धर्मनन्दन के समीप उद्यान में पहुँचा, जहाँ मुनिराज नये दीक्षित इन पांचों मुनियों को उपदेश दे रहे थे । पुरन्दरदत्त ने सोचा कि पहले वह सांसारिक सुखों का उपभोग करेगा । बाद में वैराग्य धारण करेगा । मुनिराज ने उसके मन की बात जानते हुए सांसारिक सुखों की नश्वरता का वर्णन किया । राजा ने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया। उन पाँचों मुनियों ने सम्यक्त्व का पालन करने के लिए परस्पर सहायता करने का निश्चय किया। चंडसोम को यह दायित्व सौंपा गया कि वह अन्य चारों को अगले जन्म में सम्यक्त्व धारण करने का स्मरण करायेगा । पाँचों ने इस बात पर सहमति प्रकट की। लोभदेव मरणोपरान्त सौधर्मकल्प के पद्म विमान में पद्मप्रभ नाम का देव हुआ। इसी प्रकार कुछ समय बाद मानभट पद्मसर के रूप में, मायादित्य पद्मवर के रूप में, चंडसोम पद्मचन्द्र तथा मोहदत्त पद्मकेशर के रूप में उसी विमान में देव हुए। वहाँ मित्रतापूर्वक रहते हुए उन्होंने परस्पर सम्यक्त्व पालन का स्मरण कराया। धर्मनाथ तीर्थंकर के समवसरण में ये सभी देव उपस्थित हुए । समवसरण समापन के बाद पद्मप्रभ (लोभदेव) ने अपने सबके अगले जन्मों के विषय में भगवान् से पूछा । इन्हें ज्ञात हुआ कि वे सभी भव्य जीव हैं और यहाँ से चौथे जन्म में मुक्ति प्राप्त करेंगे। उन्होंने सलाह की कि मुक्ति प्राप्ति के लिए हम परस्पर सहयोग करते रहेंगे तथा पद्मकेशर (मोहदत्त), जो सबसे अन्त में देवलोक से चलेगा, सबको सम्बोधित करेगा। स्मरण के लिए उन पांचों ने अपनीअपनी रत्नमयी प्रतिमाएँ बनाकर एक पत्थर के नीचे रख दी, जहाँ पद्मचन्द्र (चंडसोम) सर्वप्रथम सिंह के रूप में जन्म लेगा। पद्मप्रभ (लोभदेव) चम्पा में धनदत्त श्रेष्ठी के यहाँ उत्पन्न हुआ, जिसका नाम सागरदत्त रखा गया । एक बार स्वअजित धन कमाने की इच्छा से सागरदत्त घर से निकल गया और उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि यदि वर्ष भर में सात करोड़ मुद्राएँ न कमा लेगा तो अग्नि में जल कर मर जायेगा। वह दक्षिणसमुद्र
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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