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________________ धार्मिक जगत् ३९३ ओसिया के सूर्यमंदिर में दीवाल के एक आले में रेवन्त की मूर्ति अश्व पर आरूढ़ है। पीछे एक कुत्ता खड़ा है तथा उसके भक्त मूर्ति के सिर पर छाता लगाये हुए हैं।' इस मूर्ति में बृहत्संहिता के कथन का अनुशरण किया गया है। रेवन्त की पूजा आठवीं सदी में अनेकस्थानों में प्रचलित थी। उसके बाद गुजरात में रेवन्तकउपासना का प्रमाण शारंगदेव के वन्थली अभिलेख में मिलता है । मार्कण्डेय पुराण (७५.२४) में रेवन्तक को सूर्य और बडवा का पुत्र कहा गया है । रेवन्तक की मूर्ति के साथ अश्व की संगति सोमदेव के यशस्तिलक से स्पष्ट होती है, जिसमें रेवन्त को अश्वविद्या विशेषज्ञ माना गया है। अश्वकल्याण के लिए भी रेवन्त की पूजा की जाती थी। रेवन्त की स्तुति में शलिहोत्रकृत एक संक्षिप्त रेवत-स्तोत्र भी प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि लगभग ५वीं से १०-११वीं सदी तक रेवन्तक-उपासना का प्रर्याप्त प्रचार था। जैनधर्म ___ उद्द्योतनसूरि जनसाधु थे। उनका प्रमुख उद्देश्य कथा के माध्यम से तत्कालीन धर्म एवं मतों तथा विशेषतः जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का प्रचार करना था। अतः उन्होंने कुवलयमाला में प्रसंगवश जैनधर्म के सिद्धान्तों को विस्तृत जानकारी दी है, किन्तु यह उनके लेखन की विशेषता है कि कहीं भी धार्मिक बोझलता से कहानी के प्रवाह में रुकावट नहीं आयी। जैनधर्म-दर्शन के जिन प्रमुख सिद्धान्तों का ग्रन्थ में उल्लेख है, उनके स्वतन्त्र अध्ययन से जैनधर्म पर एक निवन्ध तैयार हो सकता है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में साँस्कृतिक अध्ययन पर विशेष दृष्टि होने के कारण यहाँ वर्णन क्रम से कुवलयमाला में उल्लिखित जैनधर्म के सिद्धान्तों का मात्र दिग्दर्शन कराया गया है१. ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर एवं सीमन्धर स्वामो का उल्लेख एवं स्तुति । (अनुच्छेद १ आदि) २. संसार-स्वरूप का वर्णन (६६, १७६, २३४) । ३. चार गतियों का वर्णन (७४-७५, २९१-३००, ३६६) । ४. क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मोह पर विजय (१५५) । ५. जैनमुनियों की दिनचर्या का वर्णन (१६४) ।। ६. विपाकसूत्र को छोड़कर प्रमुख ग्यारह जैन आगमों का उल्लेख (१६४)। ७. जिनमार्ग की दुर्लभता (१६५-६६-६७) । १. श०-रा० ए०, पृ० ३९३ पर उद्धृत २. वही-३९२. ३. जै०-यश० सां० अ०, पृ० १६६. ४. द वरशिप आफ रेवन्त इन एंशियण्ट इंडिया, वि० इ० ज० भाग ७,२,१९६९.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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