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________________ धार्मिक जगत् ३८३ कुवलयमाला के उक्त प्रसंग से पण्डरभिक्षुओं के सम्बन्ध में यह विशेष ज्ञात होता है कि बाण के समय इनके मत में जो सिद्धान्त प्रचलित था उसका पूर्णतया उद्द्योतन के समय तक निर्वाह हो रहा था। पंडरभिक्षु गोरस का बिलकुल व्यवहार न करते थे अतः बाण ने इनके शरीर को जल से सींचा हुआ कहा है। उक्त प्रसंग में भी इन्होंने सभी प्रकार के गोरस का निषेध बतलाया है । पंडरभिक्षु गोरस का त्याग क्यों करते थे, इसका कोई स्पष्ट कारण ज्ञात नहीं होता। पंडरभिक्षुओं का आजीवक सम्प्रदाय से सम्बन्ध होने के कारण हो सकता है कि उनमें रसों के त्याग की भावना रही हो, जो आज भी जैनवतियों में पर्युषणपर्व आदि के समय देखी जाती है। राजा दृढ़वर्मन् ने पंडरभिक्षुओं के उक्त सिद्धान्त को यह सोचते हुए अस्वीकार कर दिया कि गो-मांस का प्रतिषेध तो ठीक है, किन्तु ये मंगलकारी दही आदि की भी वर्जना करते हैं, जो साधुओं के शील की रक्षा करते हैं। इससे तो हमारे विहार करने का भी कोई प्रयोजन नहीं । _अज्ञानवादी-'कौन जानता है कि धर्म नीला, पीला अथवा श्वेत है ? इस प्रकार के ज्ञान का क्या प्रयोजन ? अतः जो होता है उसे सहन करना चाहिए।' यह अज्ञानवादियों का मत है। सूत्रकृतांग में अज्ञानवादियों के मत की अनेक तर्कों द्वारा आलोचना की गई है, जो अज्ञानवादी अज्ञान के कारण अपने को शिक्षा देने में समर्थ नहीं हैं वे दूसरों को क्या शिक्षा देगें?" उद्द्योतन ने भी अज्ञानवादियों का खण्डन करते हुए कहा है कि धर्म के स्वरूप को अनुमान, ज्ञान एवं मोक्ष के कारणों द्वारा ही जाना जा सकता है। मूढ़ अज्ञानियों के द्वारा धर्म का साधन नहीं हो सकता। चित्रशिखण्डि-'जिसने मोर को रंग-विरंगा तथा हंस को श्वेत बनाया है उसी ने हमें बनाया है । वही हमारे धर्म-अधर्म की चिन्ता करेगा। हमारे सोच करने से क्या प्रयोजन ?'७ हितोपदेश में बिलकुल इसी प्रकार की विचारधारा को १. क्वचिद् ‘‘शीकरासारसिच्यमानतनवः, हर्ष० पाँचवे उच्छवास में । २. गो-मासे पडिसेहो एसो वज्जेइ मंगलं दहियं । खमणय-सीलं रक्खसु मज्झ विहारेण विण्ण कज्जं ॥ -- कुव० २०६.१३, ३. को जाणइ सो धम्मो णीलो पीओ व सुक्किलो होज्ज ।। णाएण तेण किं वा जं होहिइ तं सहीहामो ॥ -ही १५, माहणा समणा एगे सव्वे णाणं सयं वए। सबलोगे वि जे पाणा न ते जाणंति किंचण ॥ -सूत्रकृताङ्ग, २.१४. सूत्रकृताङ्ग, २.१७. णज्जइ अणुमाणेणं णाएण वि तेण मोक्ख-कज्जाई। अण्णाण-मूढयाण कत्तो धम्मस्स णिप्फत्ती ॥-कुव० २०६.१७ जेण-सिही चित्तलि धवले हंसे कए तह म्हे वि। धम्माहम्मे चिंता काहिइ सो अम्ह किं ताए ॥ -वही २०६ १९, ८१.२८.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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