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________________ भारतीय दर्शन ३८१ जाता था। सांख्यकारिका, वैशेषिकसूत्र, न्यायसूत्र, आदि सूत्र ग्रन्थ पाठ्यक्रम में सम्मिलित थे। उपर्युक्त भारतीय दर्शनों में वेदान्त और योग का दर्शन के रूप में ग्रन्थकार ने उल्लेख नहीं किया है। जबकि न्याय, वैशेषिक का पृथक-पृथक उल्लेख है। इस विवरण के प्रसंग में एक बात और उभर कर सामने आती है कि उदद्योतनसरि ने अनेकान्तवाद के साथ अकलंक और मीमांसा (वेदान्त) के साथ शंकराचार्य के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं दिया है। जबकि ये दोनों प्राचार्य ग्रन्थकार के समकालीन और इस युग के प्रसिद्ध तार्किक थे। शंकराचार्य तो दक्षिण के रहने वाले थे। अतः वहाँ के धार्मिक मठ में उनका प्रभाव होना स्वाभाविक है । सम्भव है, उद्द्योतनसूरि ने जब कुवलयमाला की रचना की हो उस समय शंकराचार्य को किसी मत के प्रतिष्ठापक के रूप में प्रसिद्धि न मिल पायी हो। इनके और उदद्योतन के समय में भी लगभग ५० वर्षों का अन्तर रहा होगा। उदद्योतन ने ७७९ ई० में अपना ग्रन्थ लिखा था और शंकराचार्य का समय ७८८.८२० ई० माना जाता है। अनेकान्तवाद के प्रतिष्ठापक अकलंक भी उद्योतनसूरि के निकट-परवर्ती आचार्य जान पड़ते हैं। समकालीन होने पर उद्द्योतन अवश्य उनका उल्लेख करते। उद्योतनसूरि के ५ वर्ष बाद रचना करने वाले आचार्य जिनसेन ने भी अपने हरिवंशपुराण में अन्य जैन आचार्यों के साथ अकलंक को स्मरण नहीं किया।' अतः इस युग में अनेकान्तवाद की प्रसिद्धि तो हो चुकी थी किन्तु उसे पूर्ण प्रतिष्ठा आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में होने वाले अकलंक के द्वारा ही मिली होगी। १. द्रष्टव्य, पं० पन्नालाल द्वारा संपादित हरिवंशपुराण की भूमिका ।
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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