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________________ भारतीय दर्शन ३७९ यह कथन सम्भवतः सांख्य-सिद्धान्त पर व्यंग करते हुए कहा गया है कि इस मत के अनुयायो सब कुछ प्रकृति को छोड़कर पुरुष को निर्लिप्त मानते हुए कुछ भी करते रहते हैं। सांख्यमत के मानने वालों में इस समय बढ़ी हुई मांसाहार की प्रवृत्ति के प्रति सम्भवतः किसी ने उक्त कथनं द्वारा प्रहार किया है। आगे चलकर १०वीं शताब्दी में सोमदेव ने भी सांख्यमत में मांसाहार के प्रचलन के कारण उनके सिद्धान्त को त्याग देने की सलाह दी है।' __ मांसाहार एवं जीवहत्या के प्रति उद्द्योतनसूरि का भी यही दृष्टिकोण था। राजा प्राचार्य के उक्त कथन को यह कहकर अस्वीकार कर देता है कि एक बार कालकूट विष खाकर व्यक्ति जीवित रह जाय, किन्तु जीवहत्या से सम्पृक्त मत कभी धर्म नहीं हो सकता (२०७.१) । वैशेषिक-दर्शन विजयपुरी के धार्मिक मठ में 'द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय पदार्थों के स्वरूप निरूपण में अवस्थित भिन्न गुण एवं अवयवों का निरूपण करने वाला वैशेषिक दर्शन पढ़ाया जा रहा था । २ उपर्युक्त सन्दर्भ में इस दर्शन के सातवें 'अभाव' पदार्थ का उल्लेख न करने से यह कल्पना की जा सकती है कि कणाद-प्रणीत 'वैशेषिकसूत्र' इस समय पाठ्यग्रन्थ रहा होगा। जिसमें छह पदार्थों का ही कण्ठतः उल्लेख है और सत्र में पाये 'च' शब्द के आधार पर बाद में अभाव नामक साँतवें पदार्थ को माना गया है। ___एक अन्य प्रसंग में उद्योतनसूरि ने कणाद का भी उल्लेख अन्य आचार्यों के साथ किया है (२.२६)। कणाद वैशेषिक दर्शन के प्रमुख प्राचार्य थे । वैशेषिकसूत्रभाष्य के अन्त में भाष्यकार प्रशस्तपाद ने सूत्रकार कणाद की बन्दना की है और कहा है कि उन्होंने (कणाद) योग और आचार से महेश्वर को प्रसन्न करके वैशेषिक-शास्त्र की रचना की थी। योग और आचार पशुपत एवं शैव दोनों ही सम्प्रदाय में मान्य है। अतएव कणाद पशुपत या शैव सम्प्रदाय के भी अनुयायी रहे होंगे। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी कणाद के दर्शन को शवधर्म का प्रचारक कहा है। न्याय-दर्शन ____ 'मठ के छठवें व्याख्यान-मण्डप में प्रमाण, प्रमेय, संशय, निर्णय, छल, जाति निग्रहवादी नैयायिकों का दर्शन छात्रों को पढ़ाया जा रहा था ।'४ न्याय १. हन्दिकी, यश० इ० क०,१० २३० २. कत्थइ दन्व-गुण-कम्म-सामण्ण विसेस-समवाय-पयत्थ-रूव-णिरूवणावट्ठिय-भिण्ण गुणायवाय-परूवणपरा वइसेसिय-दरिसणं परूवेंति ।-१५०.२८ भण्डारकर, वै० शै० धा० म०, पृ०१३५. अण्णत्थ पमाण-पमेय-संसय-णिग्णय-छल-जाइ-णिग्गहत्थाण-वाइणो णइयाइयदरिसण-परा। -१५०.३०. له »
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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