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________________ ३६८ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन जाता है। पुराण-साहित्य में प्रयाग के इस वट-वृक्ष की महिमा विख्यात थी। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति वटवृक्ष के मूल में प्राणत्याग करता है, उसे रुद्रलोक की प्राप्ति होती है। प्रयाग में आत्मवध करने का उल्लेख राजेश्वर की बालरामायण (पृ० ३६७) में भी मिलता है। वटवृक्ष के सम्बन्ध में यूवान-च्वांग ने भी अपना प्रत्यक्ष अनुभव व्यक्त करते हुए कहा है कि प्रयाग में मंदिर के आगे विशाल वटवक्ष है, जहाँ दायें-बायें हड्डियों के ढेर लगे हुए हैं। जो यात्री यहां आते हैं वे स्वर्गसुख की कामना में अपना जीवन यहीं समाप्त कर जाते हैं। यह धार्मिक विश्वास अत्यन्त प्राचीन समय से आज भी क्रियान्वित होता चला आ रहा है। तीर्थयात्रियों का वेष-तत्कालीन समाज में तीर्थ यात्रा का इतना महत्त्व होने के कारण तीर्थों को जाने वाले व्यक्तियों का वेष भी निश्चित हो गया होगा। तभी उद्योतन ने स्थाणु एवं मायादित्य के तीर्थयात्री के वेष का वर्णन किया है । यात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व उन्होंने अपना सिर मुंडवाया, छाता धारण किया, लम्बे डंडे पर तूंबे लटकाये, गेरुए कपड़े पहिने, कंधे पर काँवर लटका ली तथा दूर-तीर्थयात्री का वेष धारण कर लिया। तीर्थयात्रियों का वेष धारण कर लेने से उन्हें दो फायदे थे। रास्ते में चोर उनकी ओर ध्यान नहीं देते थे एवं सत्रागार आदि में भोजन भी मुफ्त मिल जाता था। इस तरह के वेषधारियों के लिए सम्भवतः उस समय 'देसिय' शब्द प्रयुक्त होता था, जो एक देश (प्रान्त) से दूसरे देश की यात्रा करने के कारण कहा जाता होगा। 'देसिय' लोग शहर में वनी सराय में ठहर जाते थे, जहां अन्य लोग भी ठहते थे।" यद्यपि आठवीं सदी में तीर्थयात्रा का महत्व पर्याप्त था फिर भी उसके साथ लोक-मूढ़ता जुड़ी हुई थी । न केवल जैन आचार्य अपितु हिन्दु, लेखक भी १. अण्णेण भणियं-प्रयाग-वड-पडि यहं चिर-परूढ़ पाय वि हत्थ वि फिर्टेति । -कुव० ५५.१९. वटमूलं समासाद्य यस्तु प्राणान्विमुंचति । सर्वान्लोकानतिक्रम्य-रुद्रलोक स गच्छति ॥-मत्स पु० १०६.११. Before the hall of the temple there is a great tree***heaps of bones... From very early days till now this flase custom has been practised'. - Beal I, P. 232, Kuv. Int. P. 136 (Notes), पद्मपुराण, स्वर्गखण्ड (४३), श्लोक ११. कयाइं मंडावियाई सीसाई। गहियाओ छत्तियाओ। लंबियं डंडयग्गे लावयं । धाउरत्तयाई कप्पडाई। विलिग्गाविया सिक्कए करंका। सव्वहा विरइयो दूरतित्ययत्तिय-वेसो । – कुव० ५८.२, ३. ५. अलक्खिया चोरेहि, कहिंचि सत्तागारेसु कहिंचि उद्ध-रत्थासु भुंजमाणा-कुव० ५८.३, ४. ६. कोवि ‘देसिओ' णिवडिओ।, वही-६२.१५. ७. देसिय-तित्थयत्तिय-1, वही-५५.१२.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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