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________________ ३५६ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन सामने मैं अपने सिर की बलि देकर भी तुझे एक पुत्र की प्राप्ति कराऊँगा ।' किन्तु उसके मन्त्री उसे सलाह देते हैं कि कात्यायनी की आराधना में प्राण-संशय बना रहता है । अतः कुलदेवता की आराधना कर पुत्र प्राप्ति करो । उद्योतन ने अन्यत्र भी चण्डिका को पशुबलि चढ़ाने का उल्लेख किया है । प्राचीन भारत में कात्यायनी शक्ति की देवी के रूप में पूजी जाती थी । कात्यायनी के चण्डिका, दुर्गा, भवानी, ईश्वरी, अम्बिका, काली, चांदमारी, कौशिकी आदि अनेक नाम प्रचलित हुए हैं ।" समराइच्चकहा एवं वासवदत्ता में इसका कात्यायनी नाम भी प्रयुक्त हुआ है । लगभग ७वीं सदी से १०वीं तक कात्यायनी की आराधना मनुष्य एवं पशुओं की बलि अर्पण द्वारा होती रही है । सम्भवतः हिंसक आराध्य होने के कारण शबर, भील एवं अन्य आदिवासी इसके अधिक भक्त थे । किन्तु १०वीं सदी तक समाज का उच्च वर्ग भी कात्यायनी को आराधना अपने मनोरथपूर्ति के लिए करता था । कुछ ब्राह्मण परिवारों की अपनी इष्टदेवियाँ बन गई थीं । जैसे - कात्यों की कात्यायनी और कुशिक ब्राह्मणों की कोशिकी । ' बृहत्कथाकोश की चंडमारी एवं 'नाभिनन्दनजिनोद्धार' ग्रंथ की चण्डिका के उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि धीरे-धीरे कात्यायनी की पूजा अहिंसक होती जा रही थी । मिष्टान्न - अर्पण से भी वह संतुष्ट होने लगी थी । " 1 मूर्तियों कात्यायनी के विभिन्न नामों एवं रूपों का साक्ष्य तत्कालीन अभिलेखों एवं प्रमाणित होता है । नरहड से प्राप्त ८वीं सदी की महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति उद्योतन की कात्यायनी से एकदम मिलती-जुलती है । ' तथा इन्द्रराज चौहान के प्रतापगढ़ अभिलेख में महिषासुरमर्दिनी, दुर्गा, कात्यायनी के नाम भी प्राप्त होते हैं । १० कोजा - कुवलयमाला में उल्लिखित धार्मिक स्थानों में कोट्टजा-गृह का उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण है । डा० वासदेवशरण अग्रवाल ने इस सम्बन्ध में 'हर्षचरित - एक सांस्कृतिक अध्ययन' में विशेष प्रकाश डाला है । तदनुसार यह १. इवितिसूल विडिय महिसोवरि णिमिय चारु चलणाए । कच्चाणी पुरओ सीसेण बल पि दाऊण ॥ - कु० १३.६. २. कच्चायणी - समाराहण-प्पमुहा पाण संसय- कारिणो उवाया । - कुव० १३.२७. ३. को वि चंडियाए पसुं भइ -- वही ६८.१७ ४. चारुदत्त नाटक ( भास). ५. अन्य नामों के लिए द्रष्टव्य - महाभारत ( भीष्मपर्व अ० २३ ) . ६. यत्र भगवती कात्यायनी चण्डाभिधाना स्वयं निवसति । - वासदत्ता. ७. ह० - ० इ०क०, पृ० ३९१ ९४. ८. डा० भण्डारकर, वही - पृ० १६५. ९. द्रष्टव्य, श० - रा० ए०, पृ० ३७९ ( फुटनोट ) . १०. मरुभारती, अक्टूबर, १९५८.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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