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________________ प्रमुख-धर्म ३५३ रुद्र के सम्बन्ध में उपर्युक्त .न्दर्भो से यह स्पष्ट है कि दुःखनिवारण एवं पुत्र प्राप्ति के लिए रुद्र को बलि देकर प्रसन्न किया जाता था। रुद्र भक्ति, पूजा, अर्चना से प्रसन्न होता था। रुद्रपूजा के लिए अलग मंदिर बनने लगे थे एवं स्तोत्रों को उनमें गाया जाता था। रुद्र के स्वरूप एवं उसकी धार्मिक मान्यता के विकास पर दृष्टिपात करने से उपर्युक्त विवरण प्रमाणित ठहरता है । ऋग्वेद में रुद्र को परमशक्ति के रूप में स्वीकार कर उसकी अनेक प्रार्थनाएँ की गयी हैं (ऋ० - १.११४.८; ७.४६.२) । बच्चों की रक्षा करने के लिए रुद्र इस समय प्रसिद्ध था। उसे दिव्य चिकित्सक कहा गया है। सम्भवतः इसी मान्यता के कारण राजा ने उससे पुत्रप्राप्ति की आकांक्षा की हो । आगे चलकर रुद्र इन्द्र के साथी, शिव के अनुचर तथा यम के रक्षक स्वीकार किये गये हैं। मृत्युञ्जयमन्त्र द्वारा रुद्र को प्रसन्न कर मृत्यु से मुक्ति का प्रयत्न किया जाता था। उसी से रुद्राभिषेक की परम्परा विकसित हुई है। रुद्र भवनों में रुद्र की मूत्ति भी स्थापित रही होगी। क्योंकि प्राचीन साहित्य में काष्ठ की रुद्र-प्रतिमा बनाये जाने का उल्लेख है। स्कन्द (स्वामीकुमार)-कुवलयमाला में स्कन्द का अन्य देवताओं के साथ चार बार उल्लेख हुआ है (२.२९, १४.४, ६८.१९, २५६.३१) । रामायण (१.३७) एवं महाभारत (वनपर्व, २१९) में स्कन्द को अग्नि और गंगा का पत्र कहा गया है । जबकि पुराण-परम्परा में स्कन्द अथवा कात्तिकेय शिव-पार्वती के पत्र और युद्ध के देवता माने गये हैं। जैनसूत्रों के अनुसार स्कन्द-उपासना महावीर के समय में भी प्रचलित थी। स्कन्द की मूत्ति काष्ठ की बनायी जाती थी। अमर कोष में स्कन्द के सात नाम दिये गये हैं । गुप्तकाल तक स्कन्द महत्त्वपूर्ण देवता हो गया था। गुप्त राजाओं के नाम (कुमार एवं स्कन्द) तथा मुद्राओं से यह स्पष्ट है । इस युग के साहित्य से भी इसी बात की पुष्टि होती है। कालिदास ने कुमारसंभव कुमार कार्तिकेय की उत्पत्ति से तारकासुर के विनाश की कथा को लेकर लिखा है। उन्होंने मेघदूत में भी उनकी आराधना का वर्णन किया है । गुप्त काल में उत्तर भारत में भी स्कन्दकुमार की पूजा प्रचलित थी। _स्कन्दपुराण से ज्ञात होता है कि स्कन्द के साथ सात मातृकायें भी सम्बन्धित थीं। स्कन्द अनेक रोगों को दूर करने वाला तथा दुष्ट आत्माओं के उपद्रव को शान्त करने वाला देवता था। स्कन्द की यह प्रसिद्धि ८वीं सदी में भी थी, तभी कुव० में समुद्री तूफान से बचने के लिये यात्री उसका स्मरण करते १. डा० भण्डारकर-वै० शै००म०, पृ० ११७.१३२. २. हापकिन्स, एपिक माईथोलाजी, पृ० १७३. ३. ज०-०आ०भा०सं०, पृ० ४३३. ४. आवश्यकचूर्णी, पृ० ३१५ एवं ११५. ५. स्कन्दपुराण, कौमारिखण्ड २४-३०. २३
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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