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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्यनय
श्मशान में स्त्रियों के साथ मद्य-मांस आदि का सेवन करना कापालिकों में प्रचलित था ।
कापालिकों की धार्मिक क्रियाओं में स्त्रियों के सहवास पर कोई निषेध नहीं था । कापालिक साधु भगासनस्थ होकर आत्मा का ध्यान करता था । ' १०वीं सदी तक ये त्रिकमत को मानने लगे थे, जिसके अनुसार बांयी ओर स्त्री को बैठाकर स्वयं शिव और पार्वती के समान आचरण करना विहित था । मद्य-मांस एवं स्त्रियों के सहवास के कारण ही सोमदेव ने जैन साधुत्रों को कापालिकों का सम्पर्क होने पर मन्त्र-स्नान करने को कहा है । सम्भवतः इसीलिए दृढ़वर्मन् भी इन कापालिकों को भोगी होने से मुनि नहीं मानता एवं जो मुनि नहीं हैं, उन्हें कुछ देने से क्या फायदा ? वे जल में शिला की भाँति दूसरे को तारने में कहाँ तक समर्थ हो सकते हैं ?
महाभैरव - कुवलयमाला में सुन्दरी की अवस्था की उपमा महाभैरव के व्रत से दी गयी है । श्मशानभूमि में कन्धे पर शव को लादे हुए, जर्जर चिथड़े पहने हुए, धूल से धूसरित शरीर वाले, बिखरे केश एवं मलिन वेषधारी महाभैरव के व्रत के समान आचरण करती हुई वह सुन्दरी भिक्षा मांगती थी । शाक्त सम्प्रदाय में शक्ति सम्पन्न देवियों की अर्चना, आराधना आदि सम्मिलित थी । क्योंकि शक्ति के उपासक होने के कारण ही इस मत को मानने वाले शाक्त कहलाते हैं । शाक्त सम्प्रदाय के तन्त्र साहित्य में शक्ति के विभिन्न रूपों का वर्णन है । देवियों में प्रानन्दभैरवी, त्रिपुरसुन्दरी, ललिता आदि प्रमुख हैं। आनन्दभैरव को ही महाभैरव कहा गया है, जो नौ व्यूहों से निर्मित है । यह महाभैरव ही देवी की आत्मा होता है तथा संहार में प्रधान होता है। सृष्टि में महाभैरवी प्रमुख होती है । "
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कुवलयमाला के उक्त सन्दर्भ से ज्ञात होता है कि श्मशान में मलिन वेष धारण किये हुए शव को कन्धे पर रखकर महाभैरवी की साधना की जाती थी । श्मशान भूमि में भैरवों द्वारा व्रतों की साघना बाण के समय में भी प्रचलित थी । भैरवाचार्य के स्वरूप एवं उनकी वेताल साधना का अनुकरण आठवीं सदी में भी हो रहा था । १० वीं सदी में कापालिक शिव के भैरव रूप की साधना
१. द्रष्टव्य, ब्रह्मसूत्र २.२.३५-३६ पर रामानुज का भाष्य ।
२.
यशस्तिलक, उत्तरार्ध, पृ० २६९.
३.
इ भुंजइ कह व मुणी अह ण मुणी किं च तस्स दिण्णेण ।
आरोविया सिलोवरि कि तरह शिला जले गहिरे ॥ कुव० २०४.२९.
४. तत्थ खंधारोविय-कंकाला जर चीर-णियंसणा धूलि -पंडर - सरीरा उद्ध-केसा
मणि- वेसा महाभइरव वयं पिव चरंती भिक्खं भमिऊण । – कु० २२५.२७.
५. सौन्दर्यलहरी - टीका - लक्ष्मीधर, मैसूर संस्करण, श्लोक ३४.
६.
अ० - ह० अ०, पृ० ५७-६०.