SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूर्ति-शिल्प ३३५ उपर्युक्त विवरण में 'अण्णोण-वण्णघडिए' शब्दों से ज्ञात होता है मूर्तियां कई द्रव्यों के मिश्रण से भी बनायी जाती थीं, जिन्हें धातु को ढली हुई मूर्ति कहा जाता था। आठवीं सदी की ऐसी कई मूत्तियां प्राप्त हुई हैं।' आठवीं सदी तक मूत्तियों के शुभ-अशुभ लक्षण निश्चित हो चुके थे। प्रमाण एवं मान युक्त मूत्तियां ही श्रेयस्कर समझी जाती थीं।२ तथा मूत्ति बनाने के लिए शास्त्रविहित द्रव्यों में स्फटिक, पद्मराग, बज्र, वैदूर्य, पुष्प तथा रत्न का उल्लेख किया गया है। उद्योतन द्वारा मुक्ताशैल का उल्लेख सम्भवतः सफेद संगमरमर के लिए है। सफेद संगमरमर की तीर्थङ्कर मूत्तियां पाठवों सदो से मध्ययुग तक बराबर पायी जाती हैं। मुक्ताशैल से निर्मित शिवलिंग (काद० १३९ अनु०) तथा चषक (हर्ष० पृ० १५८) का उल्लेख बाण ने भी किया है। तीर्थङ्कर को सिरपर धारण की हुई यक्षप्रतिमा : उद्द्योतन ने रत्नशेखर यक्ष को कथा के प्रसंग में उल्लेख किया है कि उसने भगवान् कृषभदेव की भक्ति करने के लिए अपनो मुक्ता शैल से एक बड़ी प्रतिमा बनायी तथा उसके मुकुट के ऊपर ऋषभदेव की मूत्ति को धारण किया। इस उल्लेख से दो बातें ज्ञात होती हैं कि आठवीं सदी में तीर्थङ्करों की प्रतिमाओं पर पृथक-पृथक चिन्ह अंकित होने लगे थे, तभी उद्द्योतन ने ऋषभदेव की प्रतिमा का स्पष्ट उल्लेख किया है-पढमजिणवरस्स पडिमा-(११९.३) । इस युग की मथुरा संग्रहालय में प्राप्त तीर्थङ्करों की ३३ प्रतिमाओं में से ३ पर विशेष चिन्ह भी अंकित पाये गये हैं। आदिनाथ को मूर्ति पर वृषभ का चिन्ह प्राप्त होना उद्योतन के उल्लेख को प्रमाणित करता है। लगभग ८ वीं सदी से तीर्थङ्करों को प्रतिमाओं के साथ उनके अनुचर के रूप में यक्ष-यक्षिणिओं की प्रतिमाएँ भो बनायी जाने लगी थीं। प्रत्येक तीर्थङ्कर का एक-एक यक्ष और यक्षिणी भक्त माना जाता था। भक्ति विशेष के कारण यक्ष-यक्षिणी तीर्थङ्कर को अपने सिर पर भी धारण करने लगे थे। उद्योतन के समय इस परम्परा का अधिक प्रचार रहा होगा, इसलिए उन्होंने एक कथा का रूप देकर इसका उल्लेख किया है। वतमान में ऋषभदेव को मूत्ति को सिर १. भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक का वार्षिक विवरण, १९०२-३ प्लेट, ३४. २. सम्पूर्णावयवा या स्यादायुर्लक्ष्मी प्रदा सदा । एवं लक्षणमापाद्य कर्तव्या देवता बुधैः ।। -विष्णुधर्मोत्तर में मूर्तिकला, २८-२९, बद्रीनाथ मालवीय, १९६०. ३. वही, पृ० ३०. ४. उ०-कुव० इ०, पृ० १२३. ५. विउव्विया अत्तणो महंता मुत्ता-सेल-मई पडिमा ।""इमीय य उवरिं णिवेसिओ एस मउलीए भगवं जिणयंदो त्ति--(१२०.१५, १६)। ६. जै०-भा० सं० यो०, पृ० ३४४.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy