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________________ ३१८ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन धवलगृह राज्यप्रासादों की तीसरी कक्षा से प्रारम्भ होता था। इसमें घुसते ही ऊपर जाने के लिए सोपान होते थे। शयनगृह, वासभवन, आहार-मण्डप, स्नानगह, क्रीडावापी आदि धवलगह में ही बनाये जाते थे। एक प्रकार से धवलगह में राजाओं को आराम की सभी सुविधाएं जुटायी जाती थीं।' धवलगृह राजाओं का निजी वासभवन होता था तथा राजप्रासाद में सबसे बड़ा और ऊँचा होता था । यह सामान्य भवनों में भी बनाया जाने लगा था। अन्तःपुर (११.१८, २५५.२)-अन्तःपुर का इन प्रसंगों में उल्लेख है। राजा दृढवर्मन् बाह्य-उपस्थानमण्डप में मंत्रियों एवं राजाओं से घिरे बैठे हैं तभी धौतधवल दुकूल-युगल पहिने हुए, मंगलग्रीवासूत्र मात्र आभूषण से सुशोभित, उज्ज्वल धवल मृणाल जैसे के शकलापवाली, शरदऋतु में चन्द्रमा की चांदनी से श्वेतरात्रि जैसी सुमंगल नामक अन्तःपुर-महत्तरिका वहां प्रविष्ट हुई। उसने उपरिवस्त्र से अपने मुख को थोड़ा-सा ढक कर राजा के दाहिने कान में कुछ कहा और वहां से चली गयी। तभी राजा ने अपनी सभा विसर्जित की और अपनी रानी के वासभवन की ओर चल दिये ।' दूसरे प्रसंग में कुवलयचन्द्र का जन्म होते ही अन्तःपुर की वनिताएँ विभिन्न कार्यों में व्यस्त हो गईं (१७.२३, ३०)। तीसरे प्रसंग में कुमार कुवलयचन्द्र गुरुकुल से लौटकर प्रथम अपने पिता से मिलता है और वाद में वह माता से मिलने अन्तःपुर में जाता है, जहां पर नियुक्त बामन, वर्बर खुज्जा, वटभ आदि उसका मार्गदर्शन करते हैं तब वह क्रमशः जननी के भवन में पहुंचता है। चौथा प्रसंग ऋषभपुर के अन्तःपुर का है, जहां से वैरीगुप्त को रानी चंपावती को अकेली सोयी हुई जानकर राक्षस उठा ले जाता है (धवलहरोवर अंतेउ र २५२.२) । प्राचीन भारत में राजकूल का आभ्यन्तर भाग अन्तःपुर या धवलगृह कहा जाता था। वहीं राजा रानो का आवास होता था। अन्तःपुर में विशेष प्रकार के परिजन नियुक्त किये जाते थे। राजकुल की सामान्य परिचारिकाओं से अन्तःपुर की परिचारिकाएं अधिक विश्वास योग्य होती थीं। कादम्बरी में भी इसी प्रकार कलवर्धना नाम की महत्तरिका रानी के गर्भवती होने का हाल राजा के कान में जाकर कहती है। यह महत्तरिका अन्तःपुर की समस्त स्त्रीप्रतिहारियों की अध्यक्षा होती थी। इसका पद विशिष्ट माना जाता था, जो विशेष निपुण एवं वयोवृद्ध प्रतिहारो को प्राप्त होता रहा होगा। क्योंकि अन्तःपुर की सर्वविध रक्षा का भार महत्तरिका पर ही होता था। कालिदास ने उसे 'शुद्धान्तरक्षी' इसी कारण कहा है। १. विशेष वर्णन एवं चित्र के लिए द्रष्टव्य, अ०-ह० अ०, पृ० २१५. २. धोय-धवल-दुगुल्ल-जुवलय-सुमंगला णाम राइणो अंतेउरि-महत्तरि त्ति-११.१६-२०. ३. पयट्टो जणणीए भवणं । ताव य पहावियाओ बब्बर-वावण-खुज्जा-वडभियाओ देवीए वद्धावियाओ त्ति । ताव य कमेण संपत्तो जणणीए भवणं । ...२२.२८, २९.' ४. अ०-का०स०अ०, पृ० ७३, (नोट)
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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