SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन भी। इस प्रकार यद्यपि काव्यग्रन्थों के रचनाकारों द्वारा निर्धारित चम्पूकाव्य के पूर्ण लक्षण कुवलयमालाकहा में नहीं मिलते ।' तथापि डा० उपाध्ये के इस मत को स्वीकारने में अधिक आपत्ति न होगी कि समराइच्चकहा की अपेक्षा कुवलयमाला का चम्पूकाव्यत्व अधिक स्पष्ट है ।२ कथा-स्थापत्य-संयोजन कुवलयमालाकहा की स्थापत्य (टेकनीक) की दृष्टि से भी अनेक विशेषताएं हैं, जिनका संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत करना अनावश्यक न होगा। स्थापत्य का वोध अंग्रेजी के 'टेकनीक' शब्द से किया जाता है। कुशल कलाकार सर्वप्रथम एक कथावस्तु की योजना करता है, कथावस्तु की अन्विति के लिए पात्र गढ़ता है, उनके चरित्रों का उत्थान-पतन दिखलाता है। अनन्तर रूपशैली या निर्माणशैली के सहारे घटनाएं घटने लगती हैं और कथा मध्यबिन्दुओं का स्पर्श करती हुई चरम परिणति को प्राप्त होती है। इस कार्य के लिए वर्णन, चित्रण, वातावरण निर्माण, कथनोपकथन एवं अनेक परिवेशों में कथाकार को योजना करनी पड़ती है। यह सारी योजना स्थापत्य के अन्तर्गत आती है। प्राकृत कथा-साहित्य के स्थापत्य-भेदों का विस्तृत वर्णन डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने शोध-प्रबन्ध में किया है। उनमें से निम्न भेद कुवलयमाला के स्थापत्य निर्माण में प्रयुक्त हुए हैं पूर्णदीप्त प्रणाली :-'इस स्थापत्य द्वारा घटनाओं का वर्णन करते करते कथाकार अकस्मात् कथाप्रसंग के सूत्र को किसी विगत घटना के सत्र से जोड़ देता है, जिससे कथा की गति विकास की ओर अग्रसर होती है।' कुवलयमाला में इस प्रकार के स्थापत्य का प्रयोग हुआ है। कुवलयचन्द्र अश्वहरण के बाद जब एक मनिराज का दर्शन करता है तो उनके द्वारा उसे पूर्व धटनाएँ अवगत हो जाती हैं और वह उन निर्देशों के अनुसार कुवलयमाला को प्राप्त करने चला जाता है १. चम्पूकाव्य के लक्षणों के लिए द्रष्टव्य (१) कीथ, 'ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर, आक्सफोर्ड, १९४८, पृ० ३३२ (२) त्रिपाठी, चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, १९६५ । 2. Comparatively speaking the Kuvalayamala has better claims for being called a Campū than the Samarāiccakaha. -Kuv. Int. P. 110 (Note). ३. शा० --ह० प्रा० अ०, पृ० १२१-१३६
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy