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________________ चित्रकला २९५ 'कुमार, लाट देश में द्वारकापुरी नगरी है । वहाँ के राजा सिंह का मैं भाणु नामक पुत्र हूँ । मुझे चित्रकर्म करने का व्यसन हो गया था-ममं च चित्तम्मे वसणं जायं - ( १८५.११) । रेखा, स्थान, भाव से युक्त रंग संयोजन द्वारा चित्रकर्म मैं जानता हूँ तथा चित्रों की परीक्षा करना भी जानता हूँ ।" एक दिन मैं बाह्य उद्यान में गया । वहाँ एक उपाध्याय से मेरी भेंट हुई। उन्होंने मुझसे कहा – 'कुमार, मैंने एक चित्रपट लिखा है । उसे श्राप देखें, सुन्दर है या नहीं ।' मैंने कहा - 'चित्रपट दिखाइये तब बताऊँ कि वह कैसा है ।' उपाध्याय ने मुझे चित्रपट दिखाया। उस चित्रपट में पृथ्वी की समस्त वस्तुएं चित्रित थीं । दिव्य चित्रकर्म की भाँति वह अत्यन्त संक्षिप्त, किन्तु सभी दृश्यों को प्रत्यक्ष करने वाला था । मैंने पूछा- 'मुनिवर, इस पट में आपने क्या लिखा है ?" वे बोले 'कुमार, यह संसार-चक्र है ।' मैंने कहा - ' कृपया इसे विस्तार से समझाइये ।' मुनि ने छड़ी के अग्रभाग से उस चित्र को इस प्रकार दिखाना प्रारम्भ किया- दंडग्गेणं पदंसिउं पयत्तो (१८५.२२) । 'कुमार, देखो, यह मनुष्य लोक का चित्र है, जहाँ केवल दुःख ही प्राप्त होते हैं ।' मनुष्य लोक के चित्र में निम्न चित्रों का अंकन उस चित्रपट में था १. शिकार के लिए घोड़े पर आरूढ़ दौड़ता हुआ राजा । २. मरने के डर से काँपते हुए इधर-उधर भागते हुए जीव (१८५.३० ) । ३. पशुओं को इकट्ठा करने के लिए हांका भरने वाले लोग (१८५.३१) । ४. डाकुओं के द्वारा पकड़ा गया कोई व्यक्ति, जो भय से काँप रहा है ।" ५. उस व्यक्ति को अनेक पीड़ाएँ देते हुए डाकू (१८६.१,२) । ६. लुटनेवाले व्यक्ति का परिग्रही रूप (१८६.३) । ७. हल जोतते हुए कृषक पुत्र । ८. कंधे पर जुआ रखे हुए, नाक छिदाये हुए, गले में रस्सी बाँधे हुए तथा रुधिर गिराते हुए बैल (१८६.७, ८ ) । १. रेहा-ठाणय-भावेहि संजुयं वण्ण-विरयणा- सारं । जाणामि चित्तयम्मं णंरिदं दट्टु पि जाणामि ॥ - १८५. १२ २. दिट्ठे च मए तं पुहईए णत्थि जं तत्थ ण लिहियं । - १८५.१५ ३. दिव्व-लिहिययं पिव अइसंकुलं सव्ववृत्तंत - पच्चक्खीकरणं, वही - १६. .... ४. आहेडयं उवगओ एसो सो णरवई इमं पेच्छ धावइ तुरयम्मि आरूढो, २८ ५. एसो वि को वि पुरिसो गहिओ चौरेहि ... विक्कोसइ वराओ, वही, ३२. १. एए वि हलियउत्ता लिहिया मे णंगलेण वाहेंता, १८६.६
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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