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________________ २८६ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन तथा वीणा आवश्यक वाद्य थे। वंशी के स्वरों का आधार लेकर वीणा के तार स्वरों में मिलाये जाते थे। नारदीय शिक्षा का यह वाक्य-यः समगानं प्रथमः स्वरः सवेणोर्मध्यमः-इस बात की पुष्टि करता है। अतः वंशी के स्वर गायक और वीणावादक के लिए प्रामाणिक स्वर थे। आठवीं सदी तक वंशी को यह महत्त्व प्राप्त रहा होगा तभी उद्योतन ने वंस-वीणा जैसे संयुक्त शब्द का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त अन्य पाँच प्रसंगों में वीणा का उल्लेख कुवलयमाला में हुआ है ।' उनसे ज्ञात होता है कि अधिकतर वीणावादन स्त्रियाँ करती थींएक्का वायइ वीणं (२६.१७) । तथा वीणा बजाकर राजकुमार मनोरंजन किया करते थे। तत वाद्य-यन्त्रों में वीणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। तार तथा बजाने के भेद से वीणा के अनेक प्रकार प्रचलित थे। संगीतरत्नाकर में वोणा के १० भेद तथा संगीतदामोदर में २९ प्रकार गिनाये हैं। कृष्णभक्ति के प्रचार के कारण मध्यकालीन भारत में वीणवादन की कला विशेष रूप से प्रचलित थी। त्रिस्वर-नगर की स्त्रियों में से कोई एक त्रिस्वर का स्पर्शकर रही थीअण्णा उण तिसरियं छिवइ (२६.१८)। यह कोई ऐसा वाद्य था जिससे तीन स्वर निकलते रहे होंगे। सम्भवतः यह त्रितन्त्री वीणा सदश रही होगी। संगीतरत्नाकर में तीन तारों वाली वीणा को त्रितन्त्री कहा गया है। डा. लालमणि मिश्र के अनुसार आगे चलकर वितन्त्री ने सितार तथा तंबूरा का नाम एवं रूप ग्रहण कर लिया था। लोकभाषा में त्रितन्त्री को जंत्र कहा जाता था। नारद-तुम्बरू -उद्योतनसूरि ने देवलोक के प्रसंग में अन्य वाद्यों के साथ नारद-तुम्वरू वीणा एवं वेणु वाद्यों का भी उल्लेख किया है। यहाँ नारदतुम्बरू का उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारतीय संगीत के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इनका परिचय ज्ञात किया जा सकता है। भारतीय संगीत में समगान या वैदिक संगीत का युग लगभग एक हजार ई० पू० वर्ष में समाप्त हो गया था। उसके वाद जनपद युग के आरम्भ से शास्त्रीय संगीत का नया युग प्रारम्भ हुअा। इसके प्रधान प्राचार्य नारद और तुम्बरू थे। इनके संगीत को गान्धर्व या मार्गी संगीत कहा गया। भारतीय संगीत का यह दूसरा युग गुप्तकाल के लगभग समाप्त हुआ और नवराग-रागिनियों वाला नया संगीत १. कुव० २६.१७, ९३.१८, ९६ २४, १६९.१०, २३५.१८, २. डा० गायत्री वर्मा-कवि कालिदास के ग्रन्थों पर आधारित तत्कालीन भारतीय संस्कृति, पृ० ३३२. ३. तत्र त्रितन्त्रिकेव लोके जन्त्र शब्देनोच्यते ।- स० स०, वाद्य अध्याय, पृ० २४८. ४. वर-संख-पइह-भेरी-झल्लिरि-झंकार-पडिसदं । णारय-तुंबुरु वीणा-वेणु-रवाराव-महुर-सद्दालं ।-९६.२३,२४.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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