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________________ कुवलयमालाकहा का साहित्यिक स्वरूप यह भी आवश्यक माना है कि संकीर्णकथा में कथासूत्रों में तारतम्य होना चाहिये । समराइच्चकहा धर्मकथा होते हुए भी संकीर्णकथा का उदाहरण है । उद्योतनसूरि ने संकीर्णकथा की प्रशंसा करते हुए कहा है कि सभी कथागुणों से युक्त, श्रृङ्गारयुक्त किसी गुणवती युवती के सदृश मनोहर संकीर्णकथा को जानना चाहिए ।' महाकवि बाण ने भी मनोहर कथा की तुलना एक नववधू से की है, जो कथा रसिक जनों के हृदय में अनुराग उत्पन्न करती है । संकीर्णकथा का प्रयोग गुणपाल ने अपने जम्बुचरियं में भी किया है । इन ग्रन्थों के विषय एवं स्वरूप को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि संकीर्णकथाओं के प्रधान विषय राजाओं या वीरों के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, शील, वैराग्य, समुद्री यात्राओं के साहस, आकाश तथा अन्य अगम्य पर्वतीय प्रदेशों के प्राणियों के अस्तित्व, स्वर्ग-नरक के विस्तृत वर्णन, क्रोध - मान-माया - लोभ-मोह आदि के दुष्परिणाम एवं इन विकारों का मनोवैज्ञानिक चित्रण आदि है । यही कारण है, प्राकृत की अनेक कथाएँ धर्मकथा होते हुए भी उनमें कामप्रवृत्ति आदि का चित्रण होने से संकीर्णकथाएँ कही गयी हैं- -ता एसा धम्मंकहा वि होउण कामत्थ संभवे संकिण्णत्तणं - ( कुव० ४.१६) । पत्ता उद्योतनसूरि ने संकीर्णकथा के तीन भेद माने हैं - धर्मकथा, अर्थकथा एवं कामकथा । जबकि दशवैकालिक में चारों को कथा का भेद माना है । मानव की आर्थिक समस्यात्रों और उनके विभिन्न प्रकार के समाधानों को कथाओं, आख्यानों, दृष्टान्तों के द्वारा व्यक्त या अनुमित करना अर्थकथा है । राजनैतिक कथाएँ भी इसके अन्तर्गत आती हैं । कामकथाओं में केवल रूप-सौन्दर्य का वर्णन ही नहीं होता अपितु यौन सम्बन्धों की समस्याओं का भी विश्लेषण होता है । समाज के परिशोधन में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । धर्मकथा – प्राकृतकथाओं में धर्मकथा का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है । उद्योतनसूरि ने जीवों के नाना प्रकार के परिणाम, भाव-विभाव का निरूपण करने वाली कथा को धर्मकथा कहा है ।" वास्तव में धर्मकथाओं में धर्म, शील, संयम, तप, पुण्य और पाप के रहस्य के सूक्ष्म विवेचन के साथ मानव-जीवन और १. सव्व-कहा- गुण - जुत्ता सिंगार - मणोहरा सव्व-कलागम -सुहया संकिण्ण- कह त्ति सुरइयंगी । णायव्वा ॥ २. स्फुरत्कलालापविलासकोमला करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम् । रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्याभिनवा वधूरिव ॥ कुव० ४.१३ काद० पूर्व ० ८. ३. शा०-ह० प्रा० प० पृ० ११३ ४. याकोबी, समराइच्चकहा - पृ० २ ५. सा उण धम्मका गाणा- विह जीव परिणाम-भाव-विभावणत्थं. ४, २१
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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