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________________ २४४ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन सहचार फल के द्वारा संज्ञाओं का ज्ञान कराया। फिर खाना, पीना, छोड़ना, लेना आदि क्रियाएँ सिखायीं और जब वह इन क्रियाओं और संज्ञाओं को सीख गयी तो इसी विधि से उसे अक्षर-लिपि का ज्ञान कराया ।' धीरे-धीरे वह सभी शास्त्रों में निपुण हो गयी-तो धम्मत्थ-काम-सत्थाई अहीयाई (१२७.१७) । शास्त्रों के ज्ञान से उसे हिताहित, भक्ष्याभक्ष्य, कार्य-अकार्य का ज्ञान हो गया और तब उसे जैनधर्म का ज्ञान कराया गया । लेखन-सामग्री-कुव० में लेखन सामग्री के रूप में खड़िया, स्लेट, भार. पट तथा स्वर्ण की पट्टी (कणक सिलायलं २०१.२६) का उल्लेख है। कुवलय. माला ने कुमार कुवलयचन्द्र को अपने प्रेमोद्गार भोजपत्र में अंकित करके भेजे थे अइतणुयभुज्जवत्तंतरियं (१६०.१३)। वस्त्रों पर पत्र लिखकर मुद्रांकित करके भेजे जाते थे-(अवणीया मुद्दा १८०.१६) तथा चित्र बनाये जाते थे, जिन्हें पटचित्र कहते थे (पृ० १९१.९३) । पुस्तकें ताड़पत्रों पर लिखी जाती थी (२०१.१) । पुस्तकों को बस्ते अथवा डोरी आदि में वाँधकर रखा जाता था (९५.२१) तथा पढ़ते समय पुस्तक लकड़ी के पीठ पर रखो जाती थीपोत्थय-रयणं पीढम्मि (६५.२०)। सौधर्म लोक के एक स्वाध्याय के प्रसंग में कहा गया है, पुस्तक का गत्ता पद्मरागमणि से तथा पृष्ठ स्फटिकमणि से निर्मित था जिसमें इन्द्रनीलमणि से सुन्दर अक्षर लिखे हुए थे (६५.२१)। इससे ज्ञात होता है कि पुस्तकों को नाना रंग से सज्जित किया जाता रहा होगा। कुलदेवता ने राजा दृढ़वर्मन् को जो कुलधर्म का स्वरूप लिखकर दिया था वह ताड़पत्र की पाण्डुलिपि थी। ताड़पत्र लकड़ी के दो पट्टों के बीच रखे हुए थे-पट्टत-पत्तिया-णिवहं (२०१.२८)। ताड़पत्रों में ललित मात्रायें एवं वर्ण लिखे हुए थे, जिनपर मरकत धूलि से छिड़काव किया गया था। इस ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि की लिपि ब्राह्मी थो-बंभी लिवीए लिहियं (२०१.२८) । ब्राह्मी के अतिरिक्त अन्य किसी लिपि का उल्लेख ग्रन्थकार ने नहीं किया है। केवल एक प्रणय-प्रसंग में अपरलिपि में लिखे हुए सूक्ष्म अक्षरों का उल्लेख हैअवरलिवी-लिहियाई सुहुमाइं अक्खराई (१६०.२२२) । इस लेख को प्रेमी के सखा ने पढ़कर अर्थ बतला दिया था। इससे प्रतीत होता है कि ब्राह्मी लिपि के अतिरिक्त यह कोई सांकेतिक लिपि थी। छात्रों का स्वरूप एवं उनको दिनचर्या विजयपुरी के मठ में विभिन्न प्रान्तों के छात्र निवास करते थे। इनमें लाट, कर्णाटक, मालव, कन्नौज, गोल्ल, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, ढक्का, श्रीकंठ १. एवं च इमिणा पओगेण अक्ख-लिवीओ गाहिया ।-कुव० १२७.२६. २. ते मि मए सिक्खविया णिउणं वयणं जिणवराणं ॥ -वही १८. ३. ललिउव्वेल्लिर-मत्ता-वण्णयपदंत-पत्तिया-णिवह । वंभी-लिवीए लिहियं मरगय-खय-पूरियं पुरओ ॥-२०१.२८.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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