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________________ परिच्छेद पाँच धातुवाद एवं सुवर्ण-सिद्धि प्राचीन भारत में धनोपार्जन के विविध साधनों में स्वर्ण बनाने की प्रक्रिया एक प्रमुख साधन रहा है । उस समय लोग स्वर्ण दो प्रकार से अर्जित कर सकते थे। प्रथम, भारत के व्यापारी यहाँ की बनी चीजों या कच्चे माल को विदेश ले जाते थे। उसके बदले में वहाँ से सोना भर कर लाते थे। इसके लिए उन्हें बड़ी कठिनाइयाँ सहनी पड़ती थीं। दूसरे, कुछ ऐसे प्रयोगवादी लोग होते थे जो यहीं भारत में कुछ विशेष मसालों की रसायनिक प्रक्रिया द्वारा स्वर्ण तैयार करते थे। इनको कई बार प्रयोग बिगड़ जाने से विफल होना पड़ता था, किन्तु होशियार प्रयोगवादी सफल भी होते थे। इन प्रयोगवादियों में दो प्रकार के व्यक्ति होते थे । एक वे जो धातुवाद के द्वारा स्वर्ण बनाते थे और दूसरे वे जो रक्त-मांस आदि के द्वारा स्वर्ण बनाते थे। कुवलयमालाकहा में इन दोनों प्रकार के प्रयोगों का वर्णन आया है। धातुवाद प्रचीन भारत में शिक्षणीय विषयों के अन्तर्गत धातुवाद का प्रमुख स्थान था। क्योंकि धातुवाद कला होते हुए एक व्यवसाय के रूप में भी प्रचलित था। ७२ कलाओं का वर्णन करते समय कामसूत्र (कला सं० ३६), शुक्रनीति (कला सं० १२-१७) एवं समराइच्चकहा (कला सं० ७२) में धातुवाद के नाम से तथा कल्पसूत्र (कला सं० ७०), प्रबन्धकोश (कला सं० ७०) एवं पृथ्वीचंदचरित (कला सं०६८) में धातुकर्म के नाम से इसका उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि धातुवाद प्राचीन भारत के शैक्षणिक जगत् में ही नहीं अपितु व्यवहारिक जीवन में भी प्रचलित रहा होगा। उपयुक्त ग्रन्थों में धातुवाद का कला के रूप में नामोल्लेख मात्र है। विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं होता। केवल शुक्रनीति में धातुवाद को कुछ स्पष्ट किया गया
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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