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________________ स्थल-यात्राएँ २१५ सार्थ का पड़ाव एवं प्रस्थान - लम्बी स्थल - यात्राएँ करने के कारण सार्थ कहीं उचित स्थान पर अपना पड़ाव डाल देते थे । पड़ाव के समय सार्थ की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की जाती थी । वंश्रमणदत्त सार्थवाह का सार्थ सह्यपर्वत की महावि के मध्यदेश में पहुँचा । वहाँ एक मैदान के पास बड़ा जला था। उसके आगे भील - पल्ली थी, जिसका सार्थ के लिए बड़ा भय था । अतः वहीं जलाशय के पास सार्थ का पड़ाव डाल दिया गया । कीमती वस्तुओं को पड़ाव के घेरे के मध्य में रखा गया, अन्य वस्तुओं को उनके बाहर । एक सुरक्षा घेरा बनाया गया, पालकीवालों को सचेत कर दिया गया, तलवारें निकाल ली गयीं, धनुषवाण चढ़ा लिये गये तथा कनातें खींचकर सार्थ निवेश बना लिया गया । ' सूर्यास्त होते हो जव अन्धकार हो गया तो पहरेदार सामग्रियों पर ध्यान रखने लगे, घोड़ों के ऊपर से पलान उतार दिये गये तथा चौकी बना ली गयी और इस तरह सजगता पूर्वक बातचीत एवं रतजगा करते हुए बहुत-सी रात व्यतीत कर दी गयी (१३५.५-८ ) । प्रभात - समय के पूर्व जब तारे छिपने लगे पश्चिम दिशा के पहरेदारों ने मजदूरों को जगाते हुए कहा - अरे कर्मकार लोगों उठो, ऊंट लादो, सार्थ को चालू करो, रजनी बीत गयी श्रतः प्रयाण शुरू कर दो। इसी समय तूर, मंगल और शंख बजाये गये, जिससे सब लोग जाग गये, चलने की तैयारी करने लगे । इस प्रकार शब्द होने लगे - अरे-अरे उठो, रात के काम समेट लो ( समग्गेसु रणी), ऊंट लादो, गधों पर कंठा लादो, उनमें उपकरण भरो, तम्बु लपेटो, बांसों को इकट्ठा बाँधो, माल असबाब को लाद दो, कुटियों में आवाज़ करो ( अप्फोडेसु कुंडियं), घोड़े तैयार करो, पलान लादो, बैलों को उठाओ | जल्दो चलो, ऊंघते मत रहो, कुछ भूल तो नहीं गया देख लो, इस प्रकार कोलाहल करता हुआ सार्थ प्रस्थान करने लगा । २ उद्योतन द्वारा सार्थ के पड़ाव एवं प्रस्थान का यह वर्णन स्थलमार्ग की यात्राओं का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है । बाण ने हर्षचरित में हर्ष की सेना का पड़ाव के बाद प्रस्थान का इसी प्रकार वर्णन किया है । 3 प्रभात समय में बाजे बजना, छावनी में जाग होना, डेरा डंडा उठाना, सामान लादना, तम्बू समेटना आदि प्रस्थान के समय के प्रमुख कार्य थे हरिभद्र की समराइच्चकहा में भी पड़ाव के समय पहरेदारों द्वारा सार्थ की रक्षा करने का उल्लेख है । । १. अंब्भंतरीकयाई सार-भंडाईं, बाहिरीकयाइं असार-भंडाई, विरइया मंडली, आत्ता आडियत्तिया, सज्जीकया करवाला, णिबद्धाओ असि घेणओ, प्रारोवि वियाई कालवट्टाई, णिरूवियं सयलं सत्थ- णिवेसं ति । -- - वही १३५ ११-१२. २. तरसु पयट्टू वच्चसु चक्कमसु य णेय किंचिच पटुं । ३. ४. अह सत्यो उच्चलिओ कलयल - सद्दं करेमाणो ॥ - वही १३५.२५. अ० ह० अ०, पृ० १४०-४१. ह० स० क०, पृ० ४७६.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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