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________________ १९४ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन कर दिया और थोड़े दिनों में ही निर्यात का माल तैयार हो गया। इस सन्दर्भ से यह ज्ञात नहीं होता कि निर्यात की जानेवालो वस्तुएँ क्या थीं, किन्तु यवनद्वीप में उनकी मांग बहुत रही होगी। तभी उनके बदले में सागरदत्त सात करोड़ की कीमत की वस्तुएँ - मरकतमणि, मोती, स्वर्ण, चाँदी प्रादि वहाँ से लेकर वापस लौटता है । विजयपुरी-मण्डी-उद्द्योतन ने कुमार कुवलयचन्द्र के विजयपुरी पहुँचने के समय वहाँ की व्यापारिक मण्डी का सूक्ष्म वर्णन किया है। विजयपुरी नगरी में प्रवेश करते ही कुमार को अनेक मांगलिक वाद्यों के शब्द गोपुर द्वार पर सुनायी दिये । आगे चलने पर उसे हाट-मार्ग दिखायी पड़ा, जहाँ अनेक पण्ययोग्य वस्तुओं को फैलाये हुए क्रय-विक्रय में प्रवृत्त व्यापारियों द्वारा कोलाहल हो रहा था। उस हाटमार्ग में प्रविष्ट होने पर कुवलयचन्द्र को अनेक देशों की भाषाओं एवं लक्षणों से युक्त देशी बनिये दिखायी पड़े। १८ देशों के व्यापारी गोल्लदेश के वासी कृष्णवर्णवाले, निष्ठुर वचन बोलनेवाले, बहुत तकरार प्रिय एवं निर्लज्ज थे। वे 'अड्डे' शब्द का उच्चारण कर रहे थे (१५२.२४) । न्याय, नीति, संधि-विग्रह में पटु एवं स्वभाव से बहुभाषी मध्यदेश के वासी व्यापारी 'तेरे मेरे पाउ' कह रहे थे (२५) । बाहर निकले हुए बड़े पेट वाले, कुरूप, ठिगने एवं सुरति-क्रीड़ा के रसिक मगध के निवासी 'एगे' 'ले' बोल रहे थे (२६) । कपिल एवं पीली आँखवाले तथा दिनभर भोजन की कथा कहनेवाले अन्तर्वेदी 'कित्तो किम्मो' जैसे प्रिय वचन वोल रहे थे (२७)। ऊँची तथा मोटी नाकवाले स्वर्णसदश रंगवाले एवं भार वहन करनेवाले कीर देश के व्यापारी 'सरि पारि' शब्दों का उच्चारण कर रहे थे (२८)। दाक्षिण्य, दान, पौरुष, विज्ञान, दया से वर्जित शरीर वाले ढक्कदेश के वनिये 'एहं तेहिं' बोल रहे थे (१५३.१) । मनोहर, मृदु, सरल, संगीत या सुगन्धप्रिय एवं अपने देश का स्मरण करनेवाले सैन्धव 'चउडय मे' शब्दों का उच्चारण कर रहे थे (२) । बाँके, जड, जट्ट, एवं वहुभोजन करनेवाले तथा कठिन पुष्टता से युक्त शरीरवाले मरुदेश के व्यापारी 'अप्पा तुप्पाँ' बोल रहे थे (३) । घी एवं मक्खन खाने से पुष्ट शरीरवाले, धर्मपरायण तथा संधि-विग्रह में निपुण गुर्जर देशवासी 'णउरे १. घेत्तुमारद्धाइं.परतीर-जोग्गाई भंडाएं । कमेण य संगहियं भंडं । -१०५.२७. मरगय-मणि-मोत्तिय-कणय-रुप्प-संघाय-गभिणं-बहयं । गण्णण गणिज्जतं अहियाओ सत्त-कोडीओ ॥ वही १०६.४. ३. अणेय-पणिय-पसारियाबद्ध -कय-विक्कय-पयत्त-पवड्ढमाण-कलयल रवं हट्टमग्गं । - वही १५२.२२. ४. तत्थ य पविसमाणेणं दिट्ठा अणेय-देस-भासा-लक्खिए-देस-वणिए-वही. १५२.२२-२३.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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