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________________ १९० कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन अभी तक चली आ रही थी। तक्षशिला के वणिकपुत्र धनदेव का सोपारक के व्यापारिक-मण्डल में गंध, पान, एवं मालाओं आदि से भव्य स्वागत किया गया था-दिण्णं च गंध-मल्लं-तंबोलाइयं-(६५.२६) । 'देसिय' शब्द का विशेष अर्थ--कुव० में प्रयुक्त 'देसिय-वणिय-मेलीए' का अर्थ व्यापारियों के ऐसे संगठन से है, जिसके कुछ निश्चत नियम एवं कानून थे तथा जो व्यापारियों के हित में कार्य करता था। इस प्रकार गापारिक संगठन प्राचीन भारत में स्थापित हो चुके थे, जिन्हें निगम' कहा जाता था और जिनका प्रधान श्रेष्ठी होता था। अनाथपिंडक श्रेष्ठी उनमें से एक था। व्यापारिक श्रेणि के लिए 'देसिय' शब्द सम्भवतः उद्द्योतन ने प्रथम बार प्रयुक्त किया है। बुल्हर ने 'देशी' शब्द का अनुवाद साहित्यिक निदेशक (Literary Guide) किया है। जबकि इससे अच्छे अर्थ में एफिग्राफिआइण्डिका में 'देशी' का आर्थ श्रेणी (Guild of Dealers) किया गया है । उद्द्योतनसूरि के थोड़े समय बाद के अभिलेखों में भी 'देसी' शब्द बंजारकों (व्यापारियों) के संगठन के लिए प्रयुक्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि उद्द्योतन के बाद व्यापारिक संगठन के लिए 'देशिय' शब्द १२वीं सदी तक प्रयुक्त होता रहा है। व्यापारिक-अनुभवों का आदान-प्रदान सोपारक के व्यापारिक संगठन के नियमों का व्यावहारिक स्वरूप उद्योतन ने प्रस्तुत किया है। लोभदेव के स्वागत के बाद मण्डल में उपस्थित व्यापारियों ने अपने-अपने अनुभव भी सुनाये, जिससे तत्कालीन आयात-निर्यात की जानेवाली वस्तुओं का ज्ञान होता है। एक व्यापारी ने कहा-मैं घोड़े लेकर कोशल देश गया। कोशल के राजा ने भाइल अश्वों के बदले में गजपोत दिये (६५-२८)। दूसरे ने कहा-मैं सुपारी लेकर उत्तरापथ गया, जिससे मुझे लाभ हुआ । वहाँ से मैं घोड़े लेकर लौटा (३०)। तीसरे ने कहा-मैं मुक्ताफल लेकर पूर्वदेश गया, वहाँ से चवर खरीद कर लाया (३१) । अन्य ने कहा-मैं बारवई गया और वहां से शंख लाया (३१)। दूसरे ने कहा- मैं कपड़े लेकर बब्बरकुल गया और वहाँ से गजदन्त एवं मोती लाया (३२) । एक दूसरे ने कहा--मैं पलाश के फल लेकर स्वर्णद्वीप गया। वहाँ से सोना खरोद कर लाया (६६-१)। अन्य व्यापारी ने कहा-मैं भैंस और गवल लेकर चीन, महाचीन गया और १. एसो पारंपर-पुराण पुरसत्थिओ त्ति "देसिय-वाणिय-मेलीए । कु० ६५.२२, २४. २. द्रष्टव्य-गो० इ० ला० इ०, पृ० ८१.८९. ३. श०-रा०ए०, पृ० ४९५. ४. एपिग्राफिआ इण्डिका, भाग १, पृ० १८९ (फुटनोट ३९). ५. विग्रहराज चतुर्थ का हर्ष अभिलेख (वि०सं० १०३०) तथा रायपाल देव का नाडलाई प्रस्तर अभिलेख (वि०सं० १२०२).
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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