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________________ अर्थोपार्जन के विविध साधन १८३ की आराधना सागरदत्त ने की थी। यह परम्परा आज भी देखी जाती है। जो व्यक्ति जिस साधन के द्वारा पैसा कमाता है, मुहूर्त के समय उस विशिष्ट साधन की पूजा की जाती है। सागर-सन्तरण-प्राचीन भारत में व्यापार के दो ही प्रमुख केन्द्र थेस्थानीय व्यापारिक मण्डियाँ और विदेशी व्यापार । विदेशी व्यापार के लिए समुद्र-पार जाना होता था। अतः समुद्र-संतरण अर्थोपार्जन के लिए आवश्यक माना गया । सागर-संतरण द्वारा आर्थिक लाभ इसलिए अधिक होता था कि अपने देश की वस्तुएँ देशान्तर में मनमाने भाव पर बेची जा सकती थीं और वहाँ से उनके बदले स्वर्ण आदि लाया जा सकता था। कुवलयमाला में सागरसंतरण के अनेक उल्लेख हैं (६६.१, ५ आदि)। जिनके सम्बन्ध में आगे विस्तार से विचार किया गया हैं । यद्यपि सागर-संतरण से अपार धन की प्राप्ति होती थी, किन्तु जान की जोखिम जैसी अनेक कठिनाइयाँ भी उठानी पड़ती थीं। रोहण पर्वत-खनन-रोहण नामक पर्वत पाताल में स्थित माना गया है। ऐसी मान्यता है कि वह स्वर्ण-निर्मित है। वहाँ पहुँचकर लोग उसको खोदकर स्वर्ण ले आते थे और धनवान बन जाते थे। कुवलयमाला में ऐसे दो प्रसंग आये हैं, जहाँ रोहण-खनन का उल्लेख है। सागरदत्त जव अपमानित होकर धन कमाने के लिए घर से निकल जाता है तो एक उद्यान में बैठकर सोचता है कि धन कमाने के लिए वह क्या करे ? मगर-मच्छों से युक्त समुद्र को पार करे अथवा जो पाताल में स्थित है उस रोहण पर्वत का खनन करे ।' दूसरा उल्लेख है, जब चम्पानगरी के निर्धन वणिकपुत्र अनेक तरह के व्यापार करते हुए धन प्राप्त करने में सफल नहीं होते तो अन्त में किसी तरह रोहण नामक द्वीप में पहुँच जाते हैं। उसका नाम सुनते हो हर्षित होकर सोचते हैं-इस श्रेष्ठ द्वीप में अपुण्यशाली भो धन प्राप्त करते हैं अतः हम इसे खोदकर रत्नों की प्राप्ति करें। उक्त दोनों प्रसंगों से लगता है, रोहण-खनन धन प्राप्त करने का अन्तिम उपाय था । अतः जो व्यक्ति अन्य किसी साधन से धन न कमा पाये वह रोहणखनन की बात सोचता था। उसमें प्रवृत्त होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि धनोपार्जन का यह साधन श्रम के प्रतीत के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जैसे पाताल में पहुँचकर स्वर्ण लाना श्रमसाध्य है, वैसे ही असफल व्यापारी को चाहिए कि पुनः श्रम करे तो उसे सफलता मिलेगो ही। १. णमो इंदस्स, णमो धरणिंदस्स, णमो धणयस्स, णमो धणपालस्स त्ति । -वही०१०४.३१. २. दुत्तरो जलही""सुन्दरं वाणिज्जं जस्स जोवियं ण वल्लहं ।-६६.७, ९. ३. जा पायालं पत्तो खणमि ता रोहणं चेय। -कुव० १०४.१८. ४. एयं तं दीववरं जत्थ अउण्णो वि पावए अत्थं । संवइ ताव खणामो जा संपत्ताई रयणाइ॥ -वही० १९१.२२.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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