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________________ अर्थोपार्जन के विविध साधन १८१ देशान्तर-गमन–कुव० में देशान्तर-गमन के अनेक उल्लेख हैं। मायादित्य, धनदेव, सागरदत्त आदि वणिक-पुत्रों ने विदेश जाकर ही धन कमाया है। १८ देश के व्यापारियों का एक स्थान पर एकत्र होने का सन्दर्भ व्यापारिक क्षेत्र में देशान्तर-गमन की प्रमुखता की ओर संकेत करता है। तत्कालीन साहित्यकादम्बरी, समराइच्चकहा, हरिवंशपुराण आदि में भी देशान्तर-गमन द्वारा धनोपार्जन के अनेक उल्लेख मिलते हैं । व्यापार के लिए देशान्तर में जाना कई कारणों से लाभदायक था। घर से दूर रहकर निश्चिन्तता-पूर्वक व्यापार किया जा सकता था। वहाँ परिस्थिति के अनुसार रहन-सहन के द्वारा लोगों को आकर्षित किया जा सकता था। प्रमुख बात यह कि अपने देश की उत्पन्न वस्तुए सुदूर-देश में मनचाहे भाव पर बेचने में भी लाभ एवं वहाँ पर उत्पन्न वस्तुओं को सस्ते भाव में खरीदकर अपने देश में लाकर बेचने में भी लाभ उठाया जा सकता था। इसके अतिरिक्त अन्तर्देशीय व्यापारिक मण्डल के अनेक अनुभव भी हो जाते थे। तरुण वणिक-पुत्रों को अपने वाहुबल द्वारा धन कमाने का अवसर भी प्राप्त हो जाता था, जिसके लिए वे बड़े उत्सुक रहते थे। साझीदार बनाना-किसी मित्र व्यापारी के साथ यात्रा (व्यापार) करने में कई लाभ होते हैं। प्रथम, यात्रा में किसी प्रकार का डर नहीं रहता। दूसरे, यदि व्यापार में घाटा पड़ जाय तो सारा नुकसान अकेले नहीं उठाना पड़ता। तीसरे, परस्पर की सूझ-बूझ और व्यापारिक चतुरता का फायदा उठाया जा सकता है। कुव० में मायादित्य और स्थाणु एक साथ व्यापार के लिए निकले थे।' उन्होंने बराबर धन कमाया था। धनदेव और भद्रश्रेष्ठी दोनों साझीदार थे (६६.३३)। सागरदत्त ने विदेश में जाकर ही एक व्यापारी को मित्र बनाकर अपना व्यापार किया (१०५.२३) । व्यापारिक क्षेत्र में साझीदारी एक परम्परा थी। जातकों में (१.४०४, २.३०, ३.१२६) साझीदारी के अनेक उल्लेख हैं । स्मृतियों में इसी को 'सम्भूयसमुत्थान व्यवहार' कहा गया है, (नारद ३.१)। किन्तु एक ओर जहाँ साझीदार बनने बनाने में फायदा है, वहाँ कभी कभी नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। साझीदार यदि ईमानदार न हुआ तो मुसीबत हो जाती है। लालचवश मायादित्य ने स्थाणु को कुएँ में डाल दिया था (६१.१५, १६) और धनदेव ने भद्रश्रेष्ठी को समुद्र में (६७.२०), ताकि उन्हें उनका हिस्सा न देना पड़े। अजित की हुई सारी सम्पत्ति खुद के हाथ लग जावे। इस प्रकार के बेईमान साझीदारों के तत्कालीन साहित्य में अनेक उल्लेख हैं। नपसेवा-धनार्जन के लिए राज-सेवा हर जगह प्रचलित है। सामान्यतया जो व्यक्ति राजदरबार में किसी भी पद पर कार्य करते हैं उन्हें राजा को खुश १. गहिय-पच्छयणा णिग्गया दुवे वि-कुव० ५७.२८. २. विशेष के लिए द्रष्टव्य-रा०--प्रा० न०, पृ० ३२३. ३. द्रष्टव्य: ----समराइच्चकहा: तिलकमंजरी आदि ।
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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