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वस्त्रों के प्रकार
१४९ कुमार कुवलयचन्द्र ने नहाकर श्वेत-धोत दुकल पहिना,' धोत-धवल-वस्त्र पहिने हुए कोई एक व्यक्ति आया, नहाकर धोत-धवल-युगल कुमार ने पहिना, आदि उल्लेखों से ज्ञात होता है कि दुकल की धोत-धवल-युगल प्रमुख विशेषता थी। उद्द्योतन की यह महत्त्वपूर्ण सूचना पूर्व मान्यताओं को बल प्रदान करती है। आचारांग, अर्थशास्त्र एवं कालिदास के ग्रन्थों में दुकुल के उल्लेखों से यह ज्ञात नहीं होता कि दुकूल एक वस्त्र था या जोड़ा। इस प्रश्न को हल करने के लिए डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने दुकूल का अर्थ किया दुहरी चादर । कूल माने वस्त्र एवं दो वस्त्र दुकूल (द्विकल) । उनकी इस मान्यता की पुष्टि कादम्बरी एवं भट्टिकाव्य में प्रयुक्त 'दुकूले' (दुकूल का द्विवचन) शब्द से हो जाती है। उद्द्योतन द्वारा दुक्ल-युगल शब्द का प्रयोग होने से यह बात प्रमाणित हो गयी कि गुप्तयुग से आठवीं सदी तक दुकल जोड़े के रूप में आता था। इसका एक चादर ओढ़ने और दूसरा पहिनने के काम में लिया जाता था। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार दुकूल के थान को काटकर अन्य वस्त्र भी बनाये जाते थे।"
दुकूल का धौत-धवल विशेषण उसकी बारीकी और सफेदी को प्रमाणित करता है । आचारांग में (२.१५, २०) एक जगह उल्लेख है कि शक ने महावीर को जो हंस दुकल पहिनाया था वह इतना पतला था कि हवा का एक मामूली झटका उसे उड़ा ले जा सकता था। वाण ने शूद्रक के दुकूल को अमृत के फेन के समान सफेद कहा है। दुकूल का धौत-धवल विशेषण १०वीं सदी तक प्रयुक्त होता रहा।
नेत्र-युगल-उद्योतन ने कुव० में नेत्र का तीन बार उल्लेख किया है। विनीता नगरी के विपणिमार्ग में नेत्रयुगल वस्त्रों की एक अलग दुकान थी, जिसमें ताम्र, कृष्ण एवं श्वेत रंग के बढ़े-बड़े नेत्रयुगल रखे हुए थे (७.१८)। रानी प्रियंगुश्यामा के जब पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसकी खुशी में कोमल नेत्रपट के थान फाड़-फाड़ कर दिये गये । दक्षिणभारत की सोपारक मण्डी का व्यापारी चीन-महाचीन से नेत्रपट यहाँ लाया, जिससे उसे बहुत लाभ हुप्रा ।।
नेत्र शब्द का वस्त्र के लिए कब से प्रयोग हुआ, प्रथम साहित्यिक उल्लेख एवं नेत्रवस्त्र के प्रकार तथा प्रचलन आदि के सम्बन्ध में डा. वासुदेवशरण
१. हाय-सुई-भूया सिय-धोय-दुकूल-धरा, १३९.१०. २. धोय-धवलय-वत्थ-णियंसणो, १३९.१३. ३. हाय सुइ-धोय-धवल-जुवलय-णियंसणो, १७१.१.
द्रष्टव्य -- जै०-- यश० सां०, पृ० १२६. ५. अ०-ह० अ०, पृ० ७६. ६. अमृतफेनधवले"दुकूले वसानम्, कादम्बरी, पृ० १७. ७. वृत-धवलदुकूल, यशस्तिलक पूर्वार्ध, पृ० ३२३. ८. फालिज्जंति कोमले णेत्तपट्टए, १८.२७. ९. अहं णेत्त-पट्टाइयं घेतूण लद्धलाभो णियत्तो। -६६.२.
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