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________________ १४२ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन को देखती हई कूलांगनाएँ आपस में बात करती हैं-'अरी बेशरम, अपने स्तनउत्तरीय को क्यों नही सम्हालती।' कुवलयमाला कुमार कुवलयचन्द्र पर अपना राग व्यक्त करने के लिये झूठ-मूठ ही स्तनभाग के उत्तरीय को सम्हालती है।' सम्भवतः यह स्तन-उत्तरीय उत्तरीय की गात्रिका-ग्रन्थि का पर्यायवाची होगा, जिसके इधर-उधर खिसक जाने से स्तन दिखने लगते होंगे। ठीक स्तनों पर ग्रात्रिका-ग्रन्थि को बनाये रखना उनका परदा समझा जाता रहा होगा। उद्योतन द्वारा उत्तरीय को सम्हालने के लिए संयम शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो उस समय तक बाँधने के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा था । उपरिम-वस्त्र-पद्मविमान के वर्णन के प्रसंग में उवरिम-वत्थं शब्द आया है, जिसका अर्थ है-शयनासन के ऊपर तना हुआ चंदोबा । जिस प्रकार नीचे विछाने की चादर को निचोल कहा जाता था। उसी प्रकार चंदोबे को उपरिमवस्त्र कहा जाने लगा होगा। अतः उपरिमवस्त्र वितान का पर्यायवाची कहा जा सकता है । गुजराती में इसे चंदरबा कहते हैं। उपरिल्लक-यह सम्भवतः उत्तरीय का अपर नाम रहा होगा, जिसे स्त्रियाँ धारण करती थीं। मानभट की पत्नी उद्यान में अपना अपमान होने के कारण घर आकर उपरिल्लक का फंदा बनाकर फांसी लगा लेती है (५३.४) । इससे लगता है कि यह वस्त्र काफी मजबूत होता होगा एवं बिना सिला हुआ भी। उपरिमस्तनवस्त्र-यह उत्तरीय से सम्भवतः चौड़ा वस्त्र होता होगा। सुवर्णदत्ता जंगल में अपने नवजात शिशुओं की रक्षा का कोई उपाय न देख उन्हें अपने उपरिमस्तनवस्त्र में बाँध देती है। एक छोर में बच्चे को एवं एक छोर में बच्ची को और फिर दोनों की एक पोटली बना देती है। पोटली बाँधने का यह प्रकार आज भी ग्रामीणों के बाजार में देखा जा सकता है। आजकल के उस चादर का जो स्त्रियाँ ओढ़ती हैं, यह प्राचीन रूप रहा होगा। कंठ-कप्पड-सागरदत्त ने एक अंजली रुपये लेकर अपने कंठ-कप्पड में बाँधकर पोटली बना ली। यह प्राचीन भारत में प्रचलित दुपट्टा रहा होगा, जिसे कंधे पर संभ्रान्त लोग डालते थे। आजकल गाँवों में लोग अनिवार्य रूप से एक स्वच्छ गमछा अथवा तह की हुई चादर कंधे पर डाले रहते हैं। आवश्यकता १. अलज्जिए, संजमेसु थण-उत्तरिज्जं ति–कुव० २५.१६. २. कि ण संजमियं अलिय-ल्हसियमुत्तरिज्जयं-वही० १५९.३०. द्रष्टव्य--अ०-ह० अ०, फलक १, चित्र ३ अ। ४. अह तं उवरिम-वत्थं उत्थल्लेऊण तत्थ सयणतले ।-कुव० ९३.५. शब्द-रत्नाकर, ३.२२५. ६. णियय-उपरिम-थण-वत्थद्धतए णिबद्धो दारओ, दुइय-दिसाए य दारिया। कयं च उभयवास-पोट्रलयं । -कुव०७६.१६. ७. एक्का अंजली रुवयाणं..."णिबद्ध च णेण कंठ-कप्पडे तं पुट्टलयं । -१०५.२. ३. दमा
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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