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________________ १०६ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन पुत्र आदित्ययश एवं बाहुवली का पुत्र सोमयज्ञ था। उनके नाम से क्रमशः सूर्यवंश और शशिवंश प्रारम्भ हुआ-एक्को प्राइच्च-वंशो दुइओ ससि-वंसो (१३४.१६)- शशिवंश में करोड़ों राजाओं के उत्पन्न होने के बाद दृढ़वर्मन् नाम का राजा अयोध्या में हुआ। उनका पुत्र मैं कुवलयचन्द्र हूँ।' किन्तु आठवीं सदी में केवल इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न व्यक्ति ही क्षत्रिय नहीं कहे जाते थे। डा० जी० एस० अोझा के अनुसार इस समय आर्य, अनार्य जाति के अनेक व्यक्ति कुषाण, शक, पल्हव आदि भी क्षत्रियों में सम्मिलित होते जा रहे थे।' तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए सैनिक वृत्ति अपनाने वाले सभी व्यक्ति क्षत्रिय कहलाने का अधिकार रखते थे। गुण और कर्म के अनुसार व्यक्ति समाज के विभिन्न वर्गों में अपना स्थान ग्रहण करते जा रहे थे। क्षत्रिय एवं राजपूत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मतभेद के अनुसार चाहे वे भारतीय हों या विदेशी, ब्राह्मण हों या क्षत्रिय; किन्तु आठवीं सदी में इतना निश्चित अवश्य था कि अपने को क्षत्रिय कहनेवाले योद्धा अपनी मातृभूमि एवं उसकी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ना अपना कर्तव्य समझते थे। वैश्य कुव० में वैश्यवर्ण के सम्बन्ध में निम्न जानकारी प्राप्त होती है। शालिग्राम में वैश्यजाति में उत्पन्न गंगादित्य नाम का एक व्यक्ति रहता था, जो जन्म से दरिद्री था। उसी गाँव में स्थाणु नाम का एक बनिया रहता था। उन दोनों में दोस्ती हो गयी थी। महाश्रेष्ठी के पुत्र सागरदत्त का विवाह रूप, धन, वैभव, जाति एवं शील में समान एक वणिक् कुल की कन्या से हुआ था।' ग्रन्थ में अन्य प्रसंगों में वणिक् शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है (५७.६, १३५.१, १५२.२१, १.३.२३ आदि)। दो वणिक-पुत्रों की कथा में वे नाना प्रकार के कर्म करते हैं। जैनसाहित्य में वैश्य जाति की समृद्धि आदि के सम्बन्ध में प्रचुर वर्णन प्राप्त होते हैं। वे साहसी व्यापारी एवं समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति समझे जाते १. राजपूताने का इतिहास, भाग १, पृ० ४९. But whatevr the actual origin of these clans might have been, Indian or Foreign, Brahmanical or Ksatriya, they were, in the eighth century, regarded as Kșatriyas and shouldered willingly the Ksatriya's duty of fighting for the land as well as its people and culture. -S. RTA. P. 106. ३. तहिं च एक्को वइस्स-जाई-परिवसइ गंगाइच्चो णाम जम्म दरिद्रो, ५६.३१. ४. तम्मि चेय गामे एक्को वणियओ पुन्व-परियलिय-विहवो थाणू णाम, ५७.६. ५. ता रुव-धण-विहव-जाइ-समायार-सीलाणं वणिय-कुलाणं दारिया-दिण्णा गुरु यणेणं । १०३.९.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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