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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १८/ ७० - बालक - परन्तु बिना अभिषेक किए मुझे संतोष कैसे होगा ? फिर असत्य बोलना भी तो उचित नहीं है। मेरी माँ कहती है अच्छे बालक असत्य नहीं बोलते। दूसरे सज्जन – इतने विशाल समूह में तुम्हें अभिषेक करने को नहीं मिलेगा। तुम देखकर ही संतोष करो। (बालक उदास हो चुपचाप खड़ा हो जाता है ।) - चामुण्डराय – पण्डितजी ! मनो जल का अभिषेक हो गया, परन्तु आश्चर्य है कि प्रभु का वक्षस्थल अभिषिक्त नहीं हुआ ? पण्डितजी प्रतिमा विशाल है श्रीमान् । शनै: शनै:... - नेमिचन्द्र - (बीच ही में) ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कहीं श्रद्धा में किञ्चित् न्यूनता हो ? चामुण्डराय ! मन को निर्मल करो। कदाचित् अनजाने ही तुम्हारे अन्तर में ऐसी भावना प्रविष्ट हो गई हो कि इस मूर्ति का निर्माता मैं हूँ। यह शूल सी शल्य निकाल फेंकना मांगलिक है। चामुण्डराय अस्वाभाविक भी नहीं है । (आचार्य नेमिचन्द्र नेत्र बंदकर ध्यानस्थ हो जाते हैं। सब शांत हो उनके मुखारविंद से सुनने को उत्सुक हैं) चंद क्षणों पश्चात् - नेमिचन्द्र – (नेत्रोन्मीलित कर ) चामुण्डराय ! इस विशाल जनसमूह अत्यंत श्रद्धाभिभूत एक बालक प्रभु के अभिषेक से वंचित है । उस निश्छल सरल मन बालक के हाथों अभिषेक हुए बिना यह मंगल कार्य संपन्न नहीं होगा । - अभिमान तो नहीं आचार्यश्री, पर ऐसी भावना चामुण्डराय - आपके मार्गदर्शनानुसार ही कार्य होगा गुरुदेव ! (जनसमूह से) महानुभावो ! आपको अपने समीप कोई बालक दिखे तो बतलाएँ । एक सज्जन - श्रीमान् ! दीर्घ समय से प्रतीक्षारत ये बालक अभिषेक करने के लिए अत्यंत लालायित है। चामुण्डरा स्वयं सेवक ! बालक को यहाँ ले आओ। ―
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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