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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/३१ अमरचन्द - भय ! भय किस बात का कप्तान साहब ! अरों, एक दिन मरना ही है। डरने से मृत्यु लौटती नहीं। फिर हँसकर ही क्यों न उसका आह्वान किया जाय ? स्मिथ - (भय मिश्रित आश्चर्य से) अत्यन्त विचित्र प्रयोग बतला रहे हैं आप। अमरचन्द - विचित्र नहीं, किन्तु सरल है। घबराने से अशुभ कर्मों का बंध होता है। “जैन जन केवल मृत्यु के क्षणों में शांति प्राप्ति हेतु जीवनभर कठिन साधना व आराधना करते हैं।" स्मिथ - सचमुच आपको “वीर शिरोमणि" कहना अनुचित न होगा। अमरचन्द – अभी नहीं, मृत्यु के पश्चात् । विद्यार्थी परीक्षा में सफल होने पर ही डिग्री हासिल करता है। स्मिथ – (हँसकर खड़े होते हुए हाथ मिलाते हैं) अच्छा, अब चलूँ। फिर मिलूँगा। (अमरचन्दजी हाथ जोड़ते हैं और दरवाजे तक उनके साथ आते हैं, अचानक स्मिथ अपनी जेब से पिस्तौल निकालकर अमरचन्दजी की ओर ऐसे घूम पड़ते हैं, मानो अभी शूट कर देंगे।) __ अमरचन्द – (मुस्कुराते हुये) कोई फायदा नहीं होगा कप्तान साहब! (स्मिथ मुस्कुराते हुये जेब में पिस्तौल रख लेते हैं) मैंने कहा न कि मृत्यु जब आये तो उससे दो कदम आगे बढ़कर मिलने से परम शांति मिलती है एवं कर्मों के बंध कट जाते हैं। स्मिथ – तब तो इसका एक्सपेरीमेंट काफी दिलचस्प होगा। अमरचन्द - बेशक ! इस समय आपके साथ किसी को भेज देता हूँ। स्मिथ - क्या आवश्यकता ? अमरचन्द – रात्रि अधिक हो गई है। अकेले जाना उचित नहीं। स्मिथ - (हँसकर) अकेला कहाँ हूँ ? दीवानजी, (जेब से पिस्तौल निकाल कर बतलाते हुए पुनः जेब में रख लेते हैं) ये जो मेरे साथ है, मौत का एम्बेसेडर।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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