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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/75 वह समाधिमरण पूर्वक मरकर पहले स्वर्ग में देव हुआ । स्वर्ग के सुख भोगकर, वहाँ से च्युत होकर तू महीचन्द नाम का उत्तम राजा हुआ। पूर्व भव के स्नेह से तुझे इनको देखकर अनुराग हुआ है और आगे चलकर तेरी मुक्ति होगी। हे राजा महीचन्द ! अब तू इन तीनों स्त्रियों की कथा सुन । यह तीनों स्त्रियाँ अपनी इच्छानुसार बहुत प्रसन्नता से अनेक देशों में भ्रमण करने लगी। इन तीनों जोगिनों के साथ अन्य अनेक जोगिनें थीं जो भीख माँग-माँगकर पेट भरती थीं। ये जोगिनें हमेशा प्रमाद करने वाली मदिरा पीती और शरीर को पुष्ट रखने के लिये मांस भक्षण करती थीं तथा अनेक जीवों से भरे हुए महापाप को उत्पन्न करने वाले पाँच उदुम्बर फलों का सेवन करती थीं। तीनों स्त्रियाँ काम सेवन की इच्छा पूर्ति हेतु उत्तम अथवा नीच जो मिले उसी पुरुष का सेवन कर प्रसन्नता का अनुभव करती थीं तथा लोगों के सामने गीत गाती थीं और विचित्र बातें करती थीं, कहती थीं कि हमको जोग (योग) धारण किये हुए सौ वर्ष बीत चुके हैं। एक दिन धर्माचार्य नाम के मुनिराज ईर्या समिति पूर्वक शुद्धि करने के लिए गमन कर रहे थे। ऐसे श्रेष्ठ मुनि को देखकर तीनों स्त्रियाँ लाल-लाल आँखें करके कहने लगी कि अरे नग्न घूमने वाले ! हम उज्जैनी नगरी के दयालु राजा के पास धन लेने जाती थीं और किस पाप के उदय से तू हमारे सामने आया? तू दुराचारी है, क्या तूने अपनी लज्जा बेच दी है कि स्त्रियों के समने भी तू नग्न फिरता है। रे मूर्ख योगी ! तूने हमारा अपशकुन किया है इसलिये अब हमारे कार्य की सिद्धि नहीं होगी। अभी तो दिन है, परन्तु हम इस अपशकुन का फल तुझे रात्रि में देंगे। इसप्रकार इन स्त्रियों के दुष्ट वचन सुनकर भी मुनिराज ने क्रोध नहीं किया। जैसे पानी से भरी हुई पृथ्वी पर अग्नि कुछ कर नहीं सकती, उसी प्रकार क्षमाधारी पुरुष के लिये दुष्ट वचन कुछ नहीं कर सकते। जिस प्रकार पत्थर का मध्य भाग पानी से कभी गीला नहीं होता, उसी प्रकार योगीश्वरों का निर्मल हृदय क्रोधाग्नि से कभी नहीं जलता। ___ तत्पश्चात् वे तीनों स्त्रियाँ रात्रि के समय मुनिराज के समीप गईं और क्रोधित होकर अनेक प्रकार से उपद्रव करने लगीं। एक मुनिराज के समीप
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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