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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/65 सच्चा वैराग्य · रथनूपुर का राजा इन्द्र महा शक्तिशाली था। फिर भी उसके ऊपर चढ़ाई करके रावण ने उसे बांध लिया, इस कारण इन्द्र के सामन्त लोकपाल अपने स्वामी के दुःख से अत्यन्त दुखी हुए। तब इन्द्र के पिता सहस्रार, जो उदासीन श्रावक थे, इन्द्र को छुड़ाने के लिये लंका आये और रावण के पास गये। रावण ने सहस्रार को उदासीन श्रावक जानकर स्वयं सिंहासन से उतरकर उनका बहुत विनय किया और उन्हें सिंहासन दिया, स्वयं नीचे बैठा। . ... सहस्रार रावण को विवेकी जानकर कहने लगे कि हे दशानन् ! तुम जगजित हो, इससे तुमने इन्द्र को भी अर्थात् परमवीर शक्तिशाली इन्द्र तुल्य बल के धनी मेरे पुत्र को जीता है। तुम्हारा बाहुबल सबने देखा है। जो महान राजा होते हैं, वे गर्विष्ट लोगों का गर्व दूर करके फिर कृपा करते हैं; अत: अब इन्द्र को छोड़ दीजिए। उनके आस-पास खड़े चारों लोकपालों के मुख से भी यही शब्द निकले, मानो उन्होंने सहस्रार के द्वारा सिखाया हुआ ही बोला हो। तब रावण ने सहस्रार से हाथ जोड़कर यही कहा कि - ‘आप जैसा कहते हो वैसा ही होगा।' फिर उसने मजाक करते हुए चारों लोकपालों से कहा कि तुम नगर की सफाई करो। नगर को तृण, कंकड़ रहित करके कमल और पंचरंगी पुष्पों से सुगन्धित करते हुए सुन्दर सजाओ। इन्द्र से पृथ्वी पर सुगंधित जल का छिड़काव कराओ। रावण के ये वचन सुनकर चारों लोकपाल तो लज्जित होकर नीचे देखने लगे; परन्तु सहस्रार अमृतमयी वाणी में बोले कि हे,वीर ! तुम जिसको जो आज्ञा करोगे, उसी अनुसार वे करेंगे, तुम्हारी आज्ञा सर्वोपरि है। यदि तुम्हारे जैसे महामानव पृथ्वी को शिक्षा नहीं देंगे तो और कौन देगा ? ___यह सुनकर रावण अति प्रसन्न हुआ और बोला हे पूज्य ! आप हमारे पिता तुल्य हो और इन्द्र मेरा चौथा भाई है। उसे प्राप्त करके मैं सम्पूर्ण पृथ्वी को कटंक रहित करूँगा। उसका राज्य ज्यों का त्यों है और ये लोकपाल भी
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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