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________________ VARRC जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/72 माँ - नहीं तो, रसोई प्रतिदिन की तरह ही बनाई है आयुष्मन् ! भूलूँगी कैसे ? मुझे तो ऐसा लग रहा है, जैसे तुम्हें आज ही भोजन में स्वाद आ रहा हो। पण्डित टोडरमलजी - (पुनः ग्रास मुख में रखते हुये) नहीं माँ ! अवश्य तुम कुछ भूल गई हो। भोजन बिल्कुल रुचिकर नहीं लग रहा। स्मरण करो भला! माँ-वत्स! भोजन तुम कर रहे हो। तुम्हीं बता....... पण्डित टोडरमलजी- (बीच ही में बात काट कर) नमक डालना भूल गई माँ ! सब पदार्थ अलौने लग रहे हैं। __माँ-समझ गई बेटे ! मैं समझ गई। क्या तुम्हारी गोम्मटसार की टीका पूर्ण हो गई ? पण्डित टोडरमलजी- हाँ माँ ! मैं तो यह बताना ही भूल गया कि आज प्रातःकाल ग्रन्थ लेखन पूर्ण हो गया। माँ - (रहस्यमय सिर हिलाकर) अनुमान ठीक निकला पुत्र ! पण्डित टोडरमलजी-कैसा अनुमान माँ ! तुम्हारी बातें कुछ विचित्र सी लग रही हैं। भोजन के सन्दर्भ में ग्रंथ की सुधि कैसे आ गई ? जबकि दोनों कार्य एक दूसरे से अत्यन्त विपरीत हैं। माँ - (मुस्कुराकर) यह शिक्षा तो तुझसे ही मिली है वत्स ! पण्डित टोडरमलजी-माँ ! तुम मुझे अभी नन्हा सा बालक ही समझती हो क्या? मेरी बात विनोद में ही टाल दी। माँ - (मुस्कुराते हुए) नहीं बेटे ! विनोद नहीं सच कह रही हूँ। मैं छह माह से लगातार अलौने भोजन बना रही हूँ, तूने कभी कुछ नहीं कहा और
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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