SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/67 विषाद नहीं कराते; अपितु आत्मा स्वयं विकृत हो जाता है; क्योंकि आत्मा की दृष्टि विपरीत है। वह अपने सच्चिदानन्द स्वभाव को नहीं जानकर अपनी सत्ता में विकृत्ति को पालकर बाह्य में उससे दूर रहने का नाटक करे तो वह कैसे दूर हो सकता है ? बीज के सद्भाव में वृक्ष उत्पन्न होगा। हमें 'अहं' व 'ममत्व' को गलाकर विकृत्ति को नष्ट करना होगा। तभी कषायें दूर होंगी। फिर कितने ही विपरीत बाह्य संयोग मिलें, आत्मा का अनिष्ट नहीं हो सकता। श्रीचंद- यह बात तो ठीक है, जो वस्तु जहाँ होगी ही नहीं; वहाँ उसका विकास कैसे होगा? अस्तु ! आत्मा की श्रद्धापूर्वक उसे लक्ष्य में लेकर स्वभाव में स्थित होना श्रेयस्कर है। स्वभाव में न सुख-दुःख है, न राग-द्वेष; वह मात्र ज्ञाता-दृष्टा है। इसलिए निर्विकल्प होने का अभ्यास करना चाहिये। __पण्डित टोडरमलजी-(प्रसन्नतापूर्वक) आप वस्तुस्वरूप को यथावत् समझ गये सौगानीजी। त्रिलोकचंद - हाँ भई ! विकल्पों के दूर होते ही हमें आत्मरस मिलने लगेगा। ____ पण्डित टोडरमलजी-थोड़ा और आगे बढ़े त्रिलोकचंदजी।स्वभाव में स्थित होने पर विकल्प स्वयं हट जाएँगे। चैतन्य अपने कार्य को कर सकता है, अचेतन अथवा पर का किंचित् मात्र भी कुछ नहीं कर सकता। अजबरायजी-वर्तमान में तो ऐसा दिखता है कि हम परस्पर सापेक्षता से सक्रिय होते हैं ? __ पण्डित टोडरमलजी-वर्तमान पर्याय मलिन है। ये अनादिकालीन संस्कार भी कुटेव के हैं। इन्हीं मलिन पर्यायों के तीन प्रकार हैं- संयोग संबंध, एकक्षेत्रावगाह संबंध, निमित्त-नैमित्तिक संबंध । इन्हीं संबंधों के कारण हमें मलिनता ज्ञात होती है और आत्मा इन दृष्टियों से मलिन भी है, किन्तु हमें शुद्ध निर्मल होना है। अस्तु, इन अपूर्ण एकांशिक अवस्था को गौण करके त्रैकालिक स्वच्छ ज्ञायकरूप आत्मा के पूर्णत्व को प्रमुखतः केन्द्र बिन्दु बनाना होगा। तभी वहाँ पहुँचने का प्रयत्न भी होगा।
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy