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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/79 पृथ्वी मुझे सभी आवश्यक पदार्थ प्रदान करती है। जैसे बच्चे को उसकी माता पूरी तरह सुख देती है। मैं जहाँ कही जाता हूँ, वहाँ मुझे अपनी उदरपूर्ति के लिए कमी नहीं, आवश्यकतानुसार सब कुछ (भोजन) मिल जाता है। कभी नहीं मिलता तो मैं उसकी चिन्ता नहीं करता। यदि सिकन्दर मेरा सिर काट लेगा तो वह मेरी आत्मा को तो नष्ट नहीं कर सकता। सिकन्दर अपनी धमकी से उन लोगों को भयभीत करे, जिन्हें सुवर्ण धन आदि की इच्छा है या जो मृत्यु से डरते हैं। सिकन्दर के ये दोनों अस्त्र (आर्थिक प्रलोभन तथा मृत्युभय) हमारे लिए शक्तिहीन हैं, व्यर्थ हैं; क्योंकि न हम सुवर्ण चाहते हैं और न मृत्यु से डरते हैं कहा भी है कि "मृत्युर्विभेषि किं मूढ, भीतं मृत्युन मुंचति।" ___ इसलिये जाओ, सिकन्दर से कह दो कि दौलामस को तुम्हारी किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, अत: वह (दौलामस) तुम्हारे पास नहीं आयेगा। यदि सिकन्दर मुझसे कोई वस्तु चाहता है तो वह हमारे समान बन जावे। सिकन्दर के दूत अन्शक्रतस ने आचार्य दौलामस की सब बातें बहुत ध्यान और शान्ति से सुनी। फिर वह वहाँ से चलकर सम्राट सिकन्दर के पास आया। उसने दुभाषिया द्वारा सिकन्दर को आचार्य दौलामस की कही हुई सब बातें सुना दी। सिकन्दर को आचार्य दौलामस का निर्भीक उत्तर सुनकर उनके दर्शन करने की उत्कण्ठा और भी प्रबल हो गई। उसने सोचा कि जिसने अनेक देशों पर विजय पाई है, वह सिकन्दर आज एक वृद्ध नग्न साधु द्वारा परास्त हो गया। सिकन्दर ने आचार्य दौलामस मुनि की मुक्तकंठ से प्रशंसा की और मुनि को अपनी इच्छानुसार कार्य करने दिया। कहा जाता है कि उसके पश्चात् आचार्यवर श्री दौलामस और सम्राट सिकन्दर की कभी भेंट नहीं हुई; परन्तु सिकन्दर नग्न साधुओं के उत्कृष्ट आचार और कठोर तपस्या से प्रभावित हुआ, उसने उन साधुओं द्वारा अपने देश यूनान में धर्मप्रचार करना हितकारी समझा। तदनुसार कल्याण (कालनस) नामक मुनि से विनय-पूर्वक मिला। कल्याण (कालनस) मुनि आचार्य दौलामस संघ के ही एक शिष्य-साधु थे। सिकन्दर की प्रार्थना सुनकर कल्याण मुनि ने धर्मप्रचार के लिए यूनान जाना स्वीकार कर लिया, परन्तु कल्याण (कालनस) मुनि का यूनान जाना आचार्य दौलामस को पसन्द न था।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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