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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/67 स्तुति करते हैं। इसी से आप अगले भव में मुक्ति प्राप्त करेंगे ही। आपका जीवन धन्य है। __इन्द्र ने मुस्कुराते हुए कहा – महादेवी ! क्या आपकी जिनेन्द्रभक्ति कम है ? आप तो मुझसे भी एक कदम आगे बढ़ी हुई है। मैं तो तीर्थंकर प्रभु का बाद में अभिषेक करता हूँ, पर सर्वप्रथम तो आप ही प्रसूतिगृह में जाकर बाल तीर्थंकर के दर्शन कर उन्हें नमस्कार करती हैं। यह सौभाग्य तो आपको ही प्राप्त है, मुझे नहीं। इन्द्र के वचन सुनकर शची नतमस्तक हो गई। - इन्द्र ने कहा – महादेवी ! मेरी आयु दो सागर से कुछ अधिक है और आपकी आयु मात्र पल्यों की है। इसलिये आप तो मुझसे भी पूर्व ही मुक्ति प्राप्त कर लेंगी। तब ‘णमो सिद्धाणं' के रूप में आपको मैं नमस्कार करूँगा। अब आप ही बतायें कि किसकी जिनेन्द्र भक्ति श्रेष्ठ है ? और किसकी पर्याय सर्वोत्तम कृत्कृत्य हुई ? तथा किसका जीवन धन्य हुआ ? इन्द्राणी नतमस्तक हो सुन रही थी कि इस चर्चा से स्वर्ग का वातावरण हर्षविभोर हो उठा। जिनेन्द्र भगवान की जय-जयकार से आकाश गूंज उठा। उपस्थित देव समुदाय ने इन्द्र और शची की जिनेन्द्रभक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
तिरने की कला (17) सबसे बड़ी कला
अनेक विद्याओं के विशेषज्ञ प्रोफेसर साहब गंगा नदी पार करने के लिये नाव में बैठ गये। नाव में बैठे हुए उन्होंने नाविक से पूछा – क्यों मल्लाह भाई!
तुमको ज्योतिष विद्या आती है क्या ? नाविक बोला – बाबूजी, मुझे कुछ नहीं आता। मैं तो मूर्ख आदमी हूँ। प्रो. साहब ने कहा - तेरी जिन्दगी पानी में ही चली गई। अच्छा भाई, गणित तो तुझे आता होगा। नाविक ने कहा – मैंने कहा न बाबूजी, मुझे कुछ नहीं आता। अरे भाई, हिन्दी की किताब तो पढ़ लेता होगा ?