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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/41 लेकर मुनि बनें और सोलहवें अच्युत स्वर्ग में देव हुए। तथा अनन्तवीर्यवासुदेव भोगों में मस्त रहकर मरण कर नरक में गया। देखो, तो परिणामों का फल ! जीवनभर तथा भव-भवान्तर से साथ रहनेवाले तथा भविष्य में भी तीर्थंकर-गणधर होनेवाले वे भाई पृथक् हो गये - एक स्वर्ग में और दूसरा नरक में। __ देखो, परिणामों विचित्रता! मनुष्य भव के अनुकूल संयोगों में परिणामों की निकृष्टता के कारण नरक में गया और नरक की महान प्रतिकूलता में भी पुन: सम्यक्त्व को धारण कर लिया अर्थात् मोक्षमार्गपर चलना आरम्भ कर दिया। इससे पता चलता है कि संयोगों और निमित्तों से कुछ नहीं होता; हमारे उपादान में जैसा कारण होता है, कार्य भी वैसा ही होता है तथा फल भी वैसा ही मिलता है। उसमें बाह्य संयोग कुछ नहीं कर सकते। अनन्तवीर्य के भव में अनुकूलता होने पर भी भोगों को इकट्ठे करने में और भोगने में दुखी रहा और उसके फल में नरक गया। वहाँ भी बहुत काल तक अत्यन्त दुखी रहा पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त कर नरक में भी सुखी हो गया। कहा भी है चिन्मूरत दृगधारी की मोयरीति लगत कछु अटापटी। बाह्य नारक कृत दुख भोगेअन्तर समरस गटागटी॥ इससे सिद्धान्त फलित हुआ कि-सुख-दुख बाह्य संयोगों के आश्रित नहीं होते; स्वभाव-विभाव भावों के आश्रित होते हैं। तथा फल लगता है, सोपरिणामों का ही लगता है। विवेक- (हाथ ऊँचा करते हुए खड़े होकर) गुरुजी क्या मैं एक प्रश्न पूँछ सकता हूँ? गुरुजी- हाँ ! पूछो। विवेक-नरक में उस जीव को ऐसा कौन-सा कारण बना, जिससे उसने वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया ? . ___गुरुजी- (जिनेश की ओर इशारा करते हुए ) यदि तुम इसका उत्तर देना चाहो, तो दे सकते हो।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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