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________________ SH जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/39 गुरुजी - उस हाथी को भी यह करुण एवं वैराग्य का प्रसंग देखकर वैराग्य आ गया और वह भी मुनिराज पद्मनाभ के साथ रहकर अपनी आत्मसाधना में लग गया। मुनिराज के दर्शन से तथा धर्मोपदेश से उसकी चेतना जागृत हो उठी, वह विचारने लगा कि – 'मैं पशु नहीं हूँ, यह क्रोधादि भी मैं नहीं हूँ, मैं तो मुनि भगवन्त के समान शान्त स्वरूप आत्मा हूँ' – ऐसा वेदन करते हुए उसे सम्यग्दर्शन हो गया। सम्यग्दर्शन से अलंकृत होकर वह भी अपने स्वामी के चरणचिह्नों पर मुक्तिमार्गकी ओर चलने लगा।अहा!जिसेभावीतीर्थंकरकीसेवा AAN का सुयोग प्राप्त हुआहो, उसका कल्याण क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा। ___ श्री पद्मनाभ मुनिराज जहाँ-जहाँ विहार करते, वहाँ-वहाँ गजराज वनकेलि भी शिष्य की भाँति उनके साथ जाता; जब मुनिराज ध्यान में लीन होते तब वह उनके समीप चुपचाप बैठकर आत्मचिन्तन करता । मुनिराज के सान्निध्य में रहकर वह अद्भुत वैराग्यमय जीवन बिताता। मुनिराज के दर्शन को आने । वाले मुमुक्षु श्रावक उस हाथी की चर्या को देखकर आश्चर्य मुग्ध हो जाते और उनके अन्तर में धर्म की अपार महिमा जागृत होती कि - "अहा ! यह हाथी भी मुनिराज के उपदेशसे जैनधर्म प्राप्त करके ऐसा वैराग्यमय जीवन जीता है, वह तो अपने लिये अनुकरणीय है।” – इसप्रकार अनेक जीव हाथी को देखकर वैराग्य प्राप्त करते। हाथी जब अपनी ढूँढ झुकाकर मुनिराज को नमस्कार करता और मुनिराज की दृष्टि उस पर पड़ती, तब हाथ उठाकर वे उसे आशीर्वाद देते और वह हाथी अपने को धन्य मानता। प्रिय बालको ! यह जानकर आपको बेहद खुशी होगी कि यह मुनिराज पद्मनाभ एक भव बाद चन्द्रप्रभ नाम के आठवें तीर्थंकर होकर मोक्ष पधारे, उन्हें हमारा नमस्कार हो।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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