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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/36 पण्डित के वेश में आये देव ने फिर पूछा - "क्या जीव कर्म के फल का भोक्ता है या नहीं ?" कुमार वज्रायुध ने उत्तर दिया कि - "अशुद्धनय से जीव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगता है, शुद्धनय से वह कर्मफल का भोक्ता नहीं है; शद्धनय से तो वह अपने स्वाभाविक सुख का ही भोक्ता है । ' 99 उसने फिर पूछा - जो जीव कर्म करता है, वही उसके फल का भोक्ता है ? या कोई दूसरा ? वज्रायुध ने कहा – एक पर्याय में जीव शुभाशुभ कर्म को करता है और दूसरी पर्याय में (दूसरे जन्म में अथवा वर्तमान भव में) उसके फल को भोगता है; इसलिए पर्याय- अपेक्षा से देखने पर जो करता है वही नहीं भोगता और द्रव्य अपेक्षा से देखने पर जिस जीव ने कर्म किये हैं, वही जीव उनके फल भोगता है। एक जीव के सुख-दुःख को दूसरा नहीं भोगता । - उसने फिर पूछा - जीव सर्वव्यापी महान है ? या तिल्ली के दाने जितना सूक्ष्म है ? वज्रायुध ने कहा - निश्चय से प्रत्येक जीव सदा असंख्यात प्रदेशी है। केवली समुद्घात के समय वह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने से सर्वव्यापी हो जाता है, जो मात्र एक समय को ही रहता है। उसके अतिरिक्त समय में छोटाबड़ा जैसा शरीर हो वैसे आकारवाला होता है। उसका कारण यह है कि दीपक प्रकाश की भाँति जीव में संकोच - विस्तार होने की शक्ति है; इसलिए वह शरीर के आकार जैसा हो जाता है। मुक्तदशा में विद्यमान शरीररहित जीव भी सर्वथा निराकार नहीं है तथा सर्वव्यापी भी नहीं है; परन्तु लगभग अन्तिम शरीर - प्रमाण चैतन्य आकारवाला होता है । अन्त में उसकी परीक्षा करने आये देव ने पूछा - हे कुँवरजी ! यह बतलायें कि क्या जीव स्वयं ज्ञान से जानता है या इन्द्रियों से ? वज्रायुधकुमार ने कहा - जीव स्वयं ज्ञानस्वरूप है इसलिए वह स्वयं जानता है; इन्द्रियाँ कहीं जीव स्वरूप नहीं हैं: शरीर और इन्द्रियाँ तो अचेतन
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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