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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/27 गँवाकर मैं इस घोरनरक में आपड़ाहूँ।मुझमूर्खने पूर्वभव में धर्म केफल में भोगोंकीचाहकरकेसम्यक्त्वरूपीअमृतकोढोल दिया औरविषसमानविषयों कीलालसाकी। उसभूल केकारणमुझेवर्तमान में कैसेभयंकरदुःखभोगने पड़रहे हैं। अरेरे! विषयों में सेतोमुझे किंचित् सुख नहीं मिला, उलटाउनके सेवन से दुःखों के इस समुद्र में आपड़ा हूँ। __ बाह्य विषयों में सुख है ही कहाँ ? सुख तो आत्मा में है। अतीन्द्रिय आत्मसुख की प्रतीति करके मैं पुन: अपने सम्यक्त्व को ग्रहण करूँगा, ताकि फिर कभी ऐसे घोर नरकों के दुःख नहीं सहना पड़ें।
- इसप्रकार पश्चाताप सहित नरक के घोरातिघोर दुःखों को सहन करता हुआ वह अनन्तवीर्य का जीव अपनी असंख्यात वर्ष की नरकायु का एकएक पल बड़ी कठिनाई पूर्वक, रो-रोकर व्यतीत कर रहा था। अरे ! उसके दुःख का अल्प वर्णन लिखते हुए भी कपकपी आती है तो वह दुःख सहन करनेवाले की पीड़ा को तो हम क्या कहें ? वह तो वही वेदे और केवली प्रभु ही जानें । परन्तु वहाँ नरक में भंयकर वेदना के काल में भी अपने पूर्वभव के पिता स्मितसागर, जो कि निदानबंध करके धरणेन्द्र हुए थे, उनके सम्बोधन से उस अनन्तवीर्य वासुदेव के जीव ने सम्यक्त्व प्राप्त कर पुन: मोक्षमार्ग में गमन किया ।
. इधर प्रभाकरी नगरी में अपने भ्राता अनन्तवीर्य वासुदेव की अचानक मृत्यु हो जाने से अपराजित बलभद्र को तीव्र आघात लगा। 'मेरे भाई की मृत्यु हो चुकी है' - ऐसा स्वीकार करने को उनका मन तैयार ही नहीं होता था। यद्यपि स्वात्मतत्त्व के सम्बन्ध में उससमय उनका ज्ञान जागृत था, परन्तु वे भ्रातृस्नेह के कारण मृतक को जीवित मानने की परज्ञेय सम्बन्धी भूल कर बैठे। वे अनन्तवीर्य के मृत शरीर को कन्धे पर उठाकर छह माह तक इधर-उधर घूमते फिरे; उसके साथ बात करने की तथा खिलाने-पिलाने की चेष्टायें करते रहे।
औदयिकभाव की विचित्रता तो देखो कि सम्यक्त्व की भूमिका में स्थित एक भावी तीर्थंकर स्वयं भावी गणधर के मृत शरीर को लेकर छह महीने तक फिरते रहे. किन्तु धन्य है ! उनकी सम्यक्त्व चेतना को....जिसने अपनी