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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/21 हो। धर्म के दो भेद हैं - मुनिधर्म और गृहस्थ धर्म / मुनिधर्म सर्व त्याग रूप होता है और गृहस्थ घर में रहकर ही धर्म का पालन करता है। मुनिधर्म और गृहस्थ धर्म में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि पहला साक्षात् मोक्ष का कारण है और दूसरा परम्परा से। मुनिराज के उपदेश से प्रीतिंकर को जैनधर्म के प्रति श्रद्धा और भी दृढ़ हो गई। उसने हाथ जोड़कर मुनिराज से प्रार्थना की कि मेरे पूर्वभव की कथा सुनाओ ? मुनिराज कहने लगे "एकबार इस बगीचे में तपस्वी सागरसेन मुनि उतरे थे। नगर निवासी गाजते-बाजते मुनिराज के दर्शन के लिये आये थे। लोगों के चले जाने के बाद वहाँ एक शियार आया और एक मृत देह का भक्षण करने को तैयार हुआ कि तभी मुनिराज ने उसे समझाया कि पाप-परिणामों का फल बहुत बुरा होता है। तू मुर्दे को खाने के लिये इतना व्याकुल है, धिक्कार है तुझे। तू जैनधर्म ग्रहण न करके आज तक बहुत दुःखी हुआ है। अब तू पुण्य के रास्ते चलना सीख।' ___ उसकी होनहार ठीक थी; अतः वह मुनिराज का उपदेश सुनकर शान्त हो गया। मुनिराज ने आगे कहना शुरु किया कि 'तू विशेष व्रतों को तो धारण नहीं कर सकता। अतः रात्रि में खाना-पीना छोड़ दे। यह व्रत समस्त व्रतों का मूल है।' शियार ने ऐसा ही किया। वह हमेशा मुनिराज के चरणों का स्मरण करता रहता था। इस प्रकार शियार का जीवन व्रत सहित बीतने लगा। एकबार दिन में ही अम्बर में घने मेघों के छा जाने से दिन ही रात्रि के समान भाषित होने लगा। फिर भी मेघों के अन्दर छुपा हुआ सूर्य खुले मैदान में तो अपने प्रताप से दिन की सत्ता का अहसास करा रहा था, परन्तु बावड़ी के भीतर कुछ अंधकार-सा प्रतीत होने के कारण वहाँ रात्रि-सी लगने लगी थी। इसी समय में उस शियार को बहुत जोर से प्यास लगी, वह बावड़ी के अन्दर पानी पीने गया। बावड़ी के अन्दर अन्धकार था, वह समझा कि रात्रि हो गई है। अतः बिना पानी पिये ही वापस आ गया।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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