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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/17 में से अपनी मुट्ठी भर कर जैसे ही महाराज को देने के लिये हाथों को लम्बाया कि महाराज को उसके हाथ की अंगुलियाँ सर्प के फण के समान ज्ञात होने लगीं। AM %3D BIPANA meroN II जिसने कभी किसी को एक कोड़ी भी नहीं दी हो, तो उसका मन अन्य की प्रेरणा से क्या कुछ भेंट दे सकता है ? नहीं। ___ राजा को उसके इस बर्ताव से बहुत दुख हुआ, अत: फिर वह वहाँ एक पल भी नहीं रुका और तत्काल ही उसका “फणहस्त' नाम रखकर वहाँ से चला गया। __ लुब्धक की दूसरे बैल की इच्छा पूरी नहीं होने पर वह धन कमाने के लिये सिंहलद्वीप गया। वहाँ उसने लगभग चार करोड़ का धन कमाया। जब वह अपना धन-माल जहाज पर रख कर वापस आ रहा था तो समुद्र में तूफान आने से जहाज डूबकर समुद्र के विशाल गर्भ में समा गया। लुब्धक वहाँ ही आर्तध्यान से मरकर अपने धन का रक्षक सर्प हुआ। तब भी वह उसमें से किसी को एक कोड़ी भी नहीं लेने देता।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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