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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/13 अनेकों प्रसंग बन गये हैं, मैं उन्हीं में से आपको एक प्रसंग सुनाती हूँ - आप उसे ध्यानपूर्वक सुनना। .. ___“महारानी चेलना राजगृही में आकर महाराज श्रेणिक के साथ परिणयसूत्र में तो बंध जाती हैं, परन्तु शादी के पश्चात् जब उन्हें यह पता चलता है कि महाराज श्रेणिक का घर परम पवित्र जैनधर्म से रहित है। तब वे शोकमग्न होकर अत्यन्त दुःखी होती हैं और कहती हैं कि हाय !... पुत्र अभयकुमार ने यह महान बुरा किया, मेरे नगर में छल से जैनधर्म का वैभव बताया और मैं भी उसके इस मायाजाल में फंस गई। अहा ! जिस घर में पवित्र जैनधर्म की प्रवृत्ति है वही घर वास्तव में उत्तम है; परन्तु जहाँ पवित्र जैनधर्म की प्रवृत्ति नहीं है वह घर राजमहल होने पर भी कभी उत्तम नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः ऐसा घर तो पक्षियों के घोंसले के समान है। संसार में धर्म हो और धन न हो तो, धर्म के पास धन का न होना तो ठीक है; परन्तु धर्म के बिना अतिशय मनोहर, सांसारिक सुख भी उत्तम नहीं है। भयंकर वन में निवास करना उत्तम है, कदाचित् अग्नि में जलने और विष से मृत्यु होना तो ठीक हो सकता है; परन्तु जैनधर्म रहित जीव का जीवन अच्छा नहीं है। पति भले ही कदाचित् बाह्य में बहुत वैभव व प्रभावशाली हो और जिनधर्मी न हो तो किस काम का? क्योंकि कुमार्गी पति के सहवास से इसभव-परभव में अनेक प्रकार के दुःख ही भोगने पड़ते हैं। हाय ! मैंने पूर्वभव में ऐसे कौन से घोर पाप किये थे कि जिससे मुझे इस भव में जिनधर्म से विमुख रहना पड़ा ? इस प्रकार जिनधर्मी चेलना पवित्र जैनधर्म रहित घर और पति मिलने पर कितना कष्ट महसूस करती थीं - यह तो आपको पता ही है।"
पिताजी मुझे महान आश्चर्य हो रहा है कि आप गृहीत मिथ्यादृष्टि के साथ मेरा विवाह करने के लिये किस प्रकार तैयार हो गये ? क्या आप मेरा हित नहीं चाहते ? जो आप मेरे परमहितैषी होकर भी विधर्मी के साथ मेरा विवाह करने को तैयार हुए हो ? मेरे लिए धर्म के समक्ष राजवैभव राख के समान है। आज आपको अपने सम्मान का ख्याल आता है; परन्तु विधर्मी के साथ मेरा विवाह करने कि अपेक्षा विष दे दें, तो उत्तम है; क्योंकि विष से तो एक बार ही