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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/८४ - रहित अवस्था है और शुभ भाव बंध का कारण होने से मोक्ष का विरोधी है और दूसरा प्रमाण प्रतिष्ठित आचार्य कुन्दकुन्द का देना चाहूँगा, उन्होंने तो गजब की बात कही है - सोवण्णियं पिणियलंबंधदि कालायसंपिजह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥१४६।। इसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - ज्यों लोह बेड़ी बांधती त्यों स्वर्ण की भी बांधती। इस भांति ही शुभ अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बांधती है ।। इसलिये मोक्षमार्ग में वीतराग भाव ही उपादेय है और शुभअशुभ भाव हेय हैं। तीसरा प्रमाण योगीन्दुदेवकृत जैन संविधान के अनुच्छेद योगसार के ७२वें दोहे में तो पुण्य को पाप ही कह दिया है - पाप भाव को पाप तो जानत है सब लोय। पुण्य भाव भी पाप है, जाने विरला कोय ॥ और आचार्य जयसेन ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा है कि - निर्विकल्पसमाधिरतानां व्यवहारविकल्पावलम्बनेन स्वरूपात्पतितं भवतीति द्वितीय कारण, इति निश्चयनयापेक्षया पापम्। अर्थात् शुभ भाव में परद्रव्य का अवलम्बन होने से वह पराधीन है और इसे स्वरूप की पतितावस्था होने से पाप ही कहा है - इसलिये मात्र वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग में उपादेय है। पुण्य वकील- वकील साहब ने जो यह कहा है कि पुण्य में धर्म नहीं है; एकमात्र शुद्धोपयोगरूप वीतराग भाव में ही धर्म है तो जज साहब ! मेरे काबिल दोस्त ये भी जानते होंगे कि शुद्धोपयोग से पुण्य का बंध होता है, क्योंकि करणानुयोग में साफ लिखा है कि सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग होता है, जिसके कारण उत्कृष्ट पुण्य का बंध होता है । इसलिये जज साहब ! पुण्य ही मोक्षमार्ग है और मोक्ष का कारण है।
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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