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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५० तीन लोक को क्षणमात्र में नष्ट-भ्रष्ट करने वाले महा क्रोधमल्ल को उन्होंने परम क्षमाशक्ति के द्वारा जीत लिया था तथा तपरूपी चाबुक के द्वारा दुष्ट इन्द्रियरूपी घोड़े को विषय-वन में जाने से रोक लिया था। जिसप्रकार भयभीत कछुआ सर्वांग को अपने में संकुचित कर लेता है, उसी प्रकार वे संसार से भयभीत और अस्पर्श-योग में अनुरक्त - ऐसे वरांग मुनिराज ने अपने उपयोग को इन्द्रियों से संकुचित करके अपने में ही अंर्तलीन कर लिया था। उनका उपयोग अपने में ही लीन होने से उन्हें इस जगत सम्बन्धी कोई भय न था। बाहर में उपसर्ग या परिषह आने पर भी उसकी ओर उनका लक्ष्य नहीं जाता था। वे हमेशा बारह प्रकार की वैराग्य-भावनाओं का चिन्तवन करते थे। वे राज्यावस्था में जिसप्रकार शत्रु-सेना को जीतते थे, वैसे ही अब मुनिदशा में मोहसेना को जीतने के लिये उद्यम कर रहे थे। इसप्रकार बारम्बार शुद्धोपयोग के प्रहार द्वारा उन्होंने क्रोधादि मोहसेना का पराभव किया। मुनिराज वरांग की जब एक माह आयु शेष रही, तब अपनी दीक्षाभूमि मणिकांत पर्वत पर आकर उन्होंने समाधि धारण की, वह उनके गुरु वरदत्त केवली की भी निर्वाणभूमि थी। भगवान नेमिनाथ तीर्थंकर का भी मोक्षगमन यहीं से हुआ था। उन सभी को हृदय में विराजमान करके उन्होंने – दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को अखण्ड रूप से चित्त में धारण किया। महावैरागीवीतरागी दिगम्बर
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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