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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४४ के लिए वह कठिन नहीं है। उन्हें तो मुनिदशा और चारित्र-पालन, सहज आनंदरूप है, यौवन भी मुझे भोगों में विचलित कर सके - ऐसा नहीं है। हे पिताजी ! चारित्र दशा जवानी में यदि कठिन है तो फिर वृद्धावस्था में उसका पालन कैसे होगा ? इसलिए मैं तो इसी समय आत्म कल्याण के लिए चारित्र दशा अंगीकार करूँगा। गृहस्थपने के झूठे बंधन को तोड़कर स्वतन्त्रपने अब मैं वन में मुनिमार्ग में विचरण करूँगा, आप मुझे रोकने की व्यर्थ चेष्टा न करें। मैं वैराग्य के स्वर्णपात्र में दीक्षारूपी अमृतपान करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। उसी समय आप विषयों को भोगने के लिए कहेंगे तो वह विषपान करने के समान होगा। मुझे शांति की ऐसी तीव्र प्यास लगी है कि जो चारित्र धर्म रूपी अमृतपान के द्वारा ही शांत हो सकती है। धर्म के प्यासे जीव को शांति का पान करने के लिए जो रोके तो उसके समान और कौन शत्रु होगा ? बाहर का शत्रु तो आक्रमण करके कभी संपत्ति छीन भी ले अथवा देह के अंग का छेदन भी करे और अधिक से अधिक प्राण ले सकता है; परन्तु धर्म के आचरण में जो जीव बाधा करे, वह तो महानिर्दयी है, क्योंकि वह एक भव नहीं, अनेक भव के सुख को पाप की धूल में मिला देता है। जो जीव को धर्म में सहायक हो, वही सच्चा मित्र है। धर्म के बिना यह लंबी आयु, जवान शरीर या धन-संपत्ति सब किस काम का है ? इसका क्या भरोसा ? क्षणभर में ये सब नष्ट हो जायेंगे। - अरे, सांसारिक भोगों में फँसे हुये गृहस्थ को कैसी-कैसी विपत्ति : सहन करनी पड़ती है, वह क्या हम नहीं जानते ? हे पिताजी ! अब मुझे सौभाग्य से शुद्धोपयोग की प्रेरणा जागी है तो फिर आप ही कहिये कि मुझे राज्य भोगों में आसक्ति कैसे हो सकती है ?"
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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