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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४१ शुद्धोपयोग की प्रेरणा जागी है, मेरा मन सर्व जगह से विरक्त हो गया है, अब मैं इस संसार की जेल में नहीं रह सकता..., नहीं रह सकता। यदि जीवन क्षणभंगुर न होता, इष्टसंयोग हमेशा कायम रहनेवाले होते तो कोई भी उन्हें नहीं छोड़ता; लेकिन जीवन की क्षणभंगुरता और संयोगों की अध्रुवता जानकर, विवेकी पुरुष उसे छोड़कर अपने ध्रुव सिद्धपद को साधने के लिये चले जाते हैं... मैं भी उसी मार्ग पर जाऊँगा...।" तत्पश्चात् दीक्षा के लिए वन में जाते समय उन वैरागी राजा वरांग के स्त्री-पुत्रादि परिवार के प्रति कैसे उद्गार निकलते हैं, उन्हें पढ़िए; जिन्हें पढ़कर उन वैरागी राजा वरांग के प्रति अपने हृदय में भी बहुमान एवं वात्सल्य के साथ धर्म की भावना जागृत होगी। जगत स्वभाव और जगत से भिन्न आत्म-स्वभाव, दोनों के चितवन पूर्वक वैरागी वरांग राजा का चित्त संसार से उदास होकर मोक्षमार्ग में ही लग गया, इसलिए प्रजा के प्रेम का बंधन तोड़कर मोक्ष को साधने के लिए वे वन में जाने के लिए तैयार हो गये। उसी समय रानियाँ जब अपने आपको अशरण मानकर रोने लगीं, 'तब वैरागी वरांग ने उनसे कहा – “हे देवियो ! तुम यदि दुख से छूटकर सुखी होना चाहती हो तो तुम भी हमारे साथ वैराग्य पथ पर आओ। तुम हमारे साथ दीक्षा लोगी तो यह कोई अपूर्व घटना नहीं होगी; क्योंकि पहले भी अनेक राजामहाराजाओं के साथ उनकी रानियों ने जिनधर्म के संस्कार तथा तत्त्वज्ञान
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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